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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१ - 'न हि अवश्यं कारणानि फलवन्ति' [ ] इति न्यायात् केवलमनुपलभ्यमाना बुद्ध्यादय उपलम्भप्रत्ययान्तरविकला न ‘असन्त एव' इति निश्चयः । येषां त्वर्थापत्तिसमधिगम्या बुद्धिः तेषां चक्षुरादीनामिव कार्याऽनारम्भेऽपि कुतोऽस्या प्रभ(?अभा)वो भवेत् ?
___ अथवा एकैवावस्थितरूपा बुद्धिस्तान् तान् पदार्थान् क्रमेणोपलभन्ते, न ह्यस्या घटादीनामिव 5 विनाशकारणमुत्पश्यामः । ततोऽदृष्टोऽपि यथाऽस्या विनाशहेतुः कल्प्यते विनाशस्यापि तथैव कल्प्यताम् ।
ततो विनाशेनापि स्वविषयज्ञानजननसामर्थ्य बिभ्राणेन विनंष्टव्यमिति घटादीनां पुनरप्युन्मज्जनप्रसङ्गः। य(?त)तोऽयमहेतुः निःस्वभावोऽभ्युपगन्तव्यः। अग्निसंयोगादयस्तु काष्ठादिष्वङ्गारादिकमेव जनयन्ति। काष्ठादयस्तु स्वरसत एव निरुध्य(न्)ते इत्यनवद्यम् । लोकश्चाकिञ्चिद्रूपतामेव नाशस्य प्रतिपद्यते तत्त्वमपि
(?) वा(चा) सतोऽकिञ्चिद्रूपतैव, यतोऽवैपरीत्यं तत्त्वमुच्यते । न चैतद् विपरीतं यत् 'अकिंचिद्रूपो ध्वंसः' 10 इति। ततो यद्यपि ‘सदसती तत्त्वम्' इति व्यपदेशस्तथापि नासतो वस्तुता। तेन विनाशकाले - ‘न
असत्त्व का निश्चय कर लेना उचित नहीं। क्योंकि उपलम्भ तो प्रमेय (विषय) का कार्य है, कार्य के अभाव से कारण के अभाव का अनुमान शक्य नहीं। यह नियम नहीं है कि कारण विद्यमान होते हुए भी कार्य का जनन करे ही - यह न्यायसंगत है। अत एव बुद्धि आदि जब उपलम्भ -
या अन्य किसी प्रतीति से शून्य होते हैं तब उन्हें सिर्फ अनुपलभ्यमान ही कह सकते हैं किन्तु 'ये 15 असत् हैं' ऐसा निश्चय नहीं होता।
[ बुद्धिनाश की तरह विनाश के विनाश की आपत्ति ] अथवा स्थिरवाद में ऐसा भी क्यों न माना जाय कि - बुद्धि सदा (दर्पण की तरह) अवस्थित रहती है और (दर्पण में पडनेवाले क्रमिक प्रतिबिम्बों की तरह) क्रमशः तत्तत् पदार्थों का ग्रहण करती
है। घटादि के विनाश के दृश्यमान कारणों की तरह बुद्धि का कोई नाशहेतु दृष्टिगोचर नहीं होता। 20 आप ऐसा मानने के बदले आप अदृष्ट नाशहेतु की कल्पना जब करते हैं तो विनाश के अदृष्ट विनाश की भी कल्पना कर लो। फलतः मानना ही पडेगा कि स्वविषयज्ञानजनक सामर्थ्य रखनेवाले अभाव (ध्वंस) को भी ध्वस्त हुए विना नहीं चलेगा। जैसे ही ध्वंस का ध्वंस हुआ, प्रतियोगी घटादि पुनः सिर उठायेंगे ही। आप को स्वीकारना होगा कि ध्वंस अहेतुक निःस्वभाव होता है। प्रश्न :
नाश स्वयं होता है तो अग्नि आदि का काम क्या ? उत्तर :- अग्निसंयोगादि नाश के लिये निरूपयोगी 25 है किन्तु काष्ठादि के अंगार या भस्म की उत्पत्ति के लिये उपयोगी है। अग्नि से काष्ठादि का नाश नहीं होता, काष्ठादि का निरोध स्वस्वभाव से ही होता है - इस कल्पना में दोष नहीं है।
[लोक में भी विनाश की तुच्छता की मान्यता ] लौकिक न्याय से देखें तो - नाश तुच्छ निःस्वभाव अकिंचिद्रूप ही लोक में माना जाता है। नाश का मूल तत्त्व (तद्भाव) भी यही है - असत् होने से अकिंचिद्रूपता। यह भी इस लिये कि 30 पदार्थमात्र का अपने स्वभाव से अनन्यथापन यही उस का तत्त्व कहा जाता है। 'ध्वंस अकिंचिद्रूप
है' यह निरूपण विपरीत नहीं है। हालाँकि लोक में ऐसा व्यवहार भी होता है कि तत्त्व सत् और असत् द्विविध है। किन्तु सच यह है कि असत् पदार्थ वस्तुरूप कभी नहीं होता। अत एव प्रमाणवार्तिक
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