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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१ स्फुटेतरप्रतिभासभेदाद् दर्शन-स्मरणयोरपि भिन्नार्थताप्रसक्ते:-दर्शनं हि साक्षात्करणाकारम् स्मृतिश्च परोक्षाध्यवसायस्वभावेपि (?ति) कथं तयोः प्रतिभासभेदादि(?द)भिन्नार्थत्वम् ? तन्न ताभ्यामपि एकत्वप्रतिपत्तिः ।
नाप्यात्मा एकत्वं प्रतिपद्यते दर्शन-स्मरणाभावे स्वापादावर्थप्रतिपत्तेस्ततो भावात् । दर्शन-स्मरणे च पूर्वापरार्थपरिहारेण प्रवर्त्तमाने न तयोरेकत्वमधिगच्छत इति न तद्द्वारेणात्मापि तत्त्वमवैति। न चात्मनोऽपि पूर्वापरावस्थयोरेकत्वावगमः पूर्वबोधेन भाविविबोधसम्बन्धिता(न)नुभवात्, उत्तरानुभवेन पूर्ववित्सम्बन्धिताऽनवगमात् । अनुभवे वाऽनाद्यनन्तसकलजन्मपरम्परापरिच्छेदप्रसक्तिः । न च शुद्ध एवात्मा स्वसंवेदने प्रतिभाति दृशा परिगतः, तासामप्रतिभासे तद्गतत्वेन तस्याप्यप्रतिभासनादित्युक्तत्वात् । न च दर्शन-स्मरणव्यतिरेकेणान्योऽनुसन्धाता भाति, ते चाऽन्योन्यपरिहारेण स्थिते इति कथमेक आत्मा ? न च दृष्टुः स्वरूपं
स्मर्तृरूपतया 'द्रष्टाहं स्मरामि' इति प्रतीतो प्रतीति: (?ते:)* कथं नैक आत्मा ? यतो द्रष्ट्रस्वरूपं 10 में अर्थभेद भी सुप्रसक्त ही है। दर्शन होता है साक्षात्काररूप, स्मृति होती है परोक्षाध्यवसायस्वरूप,
तो सिर्फ प्रतिभासभेद को ही अर्थभेदप्रयोजक कैसे माना जाय ? निष्कर्ष - दर्शन-स्मरण से एकत्व की उपलब्धि असंभव है।
[ क्या आत्मा एकत्वबोध कर सकता है ? ] __ पूर्वक्षणदर्शन या सविकल्प या स्मृति तो एकत्व का बोध नहीं कर सकती किन्तु आत्मा 15 पूर्वोत्तरक्षणानुगत होने से एकत्वबोध कर लेगा' - ऐसा भी नहीं माना जा सकता, क्योंकि निद्रादि
अवस्था में जब दर्शनोदय नहीं होता, न तो कोई स्मृति होती है तब भी आत्मा मौजुद होने से अर्थभान होने का प्रसंग आयेगा। तथा यह भी नहीं कह सकते कि - ‘आत्मा को निद्रादि में अर्थभान नहीं होगा क्योंकि दर्शन-स्मरण के द्वारा ही आत्मा अर्थभान कर सकता है' – क्योंकि दर्शन उत्तर
अर्थ ग्रहण नहीं करता एवं स्मति पर्व अर्थ को स्पर्श नहीं करती. दोनों में से एक भी एकत्वबोध 20 करता नहीं तो उन के (एक-एक के) द्वारा आत्मा कैसे एकत्वबोध कर पायेगा ?! यदि कहें - ‘आत्मा
स्वयं पूर्वोत्तर अर्थों के (अवस्थाओं के) एकत्व का अवबोध कर लेगा' - तो यह भी अनुपपन्न है क्योंकि पूर्वक्षणबोध से आत्मा के साथ भाविक्षणवोधसम्बन्धिता का भान हो नहीं सकता, एवं उत्तरक्षणबोध के द्वारा पूर्वबोधसम्बन्धिता भान नहीं हो सकता तब आत्मा से एकत्वबोध होगा कैसे ? फिर भी
आत्मा से एकत्वबोध यानी पूर्वापरक्षणसम्बन्धिता का भान मानेंगे, तो अनादिकालीन अनन्तकाल तक 25 की जन्मपरम्परा का भी अवबोध प्रसक्त होगा।
[ अनेकदर्शनानुगत एक शुद्धात्मा की कल्पना असंगत ] ऐसा मत कहना कि – ‘अनेक दर्शनों में व्याप्त एक शुद्धात्मा ही स्वसंवेदन में भासित होता है अतः एकत्वग्रह संगत है' - क्योंकि अनेक दर्शनों का एक साथ प्रतिभास शक्य न होने के कारण
उन में व्याप्त एक आत्मा का अवबोध भी शक्य नहीं है - यह कहा जा चुका है। वास्तव में 30 तो दर्शन और स्मरण के विना और कोई स्वतन्त्र अनुसन्धानकर्ता कभी भासित नहीं होता। दूसरी
ओर, यह भी सिद्ध है कि दर्शन और स्मरण एक दूसरे से स्वरूपतः भिन्न भासित होते हैं, फिर 1. ततोऽभावात् इति पूर्वमुद्रिते । *. (प्रतीयत इति) इति कोष्ठगतः पाठः पूर्वमुद्रिते ।
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