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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड - १
न ( च ?) तत्र लोचनसंवित्प्रसवः स्मरणोपनीतपौर्वापर्येऽप्यक्ष (1) विषयत्वस्य तुल्यत्वात् । अथ कथमक्षव्यापारानन्तरं प्रत्यभिज्ञा उदयमासादयति यद्यक्षप्रभवा न भवेत् ? न तत्र सति पुरोव्यवस्थितवस्तुदर्शने पूर्वदृष्टे स्मृतेरुदयात् । यथा, दूरव्यवस्थितचन्दनाद्यर्थदर्शनाद् गन्धस्मृतेः 'सुरभि चन्दनम्' इति प्रतिपत्तिः । न च लोचनाऽविषयत्वाद् गन्धस्य तद्विशिष्टं (ष्ट) चन्दनप्रतिपत्तिस्तद्गतरूपदर्शनाल्लिंगप्रभवेति 5 वक्तव्यम् प्रकृतेऽपि समानत्वात्। तथाहि - वर्त्तमानदर्शनात् पूर्वकालाद्यनुस्मरणात् तद्विशिष्टपुरोव्यवस्थितार्थप्रतिपत्तिरानुमानिकी पूर्वकालादिसम्बन्धितायास्तदा प्रत्यस्तमयतोऽक्षाऽगोचरत्वात् तामध्यवसन्ती प्रत्यभिज्ञा कथं प्रत्यक्षतामनुभवेत् ? अन्यथा परोक्षप्रतिपत्तेः सर्वस्याः प्रत्यक्षताप्रसक्तिः । अथ परोक्षाकारैव प्रतीतिरप्रत्यक्षा, प्रत्यभिज्ञा तु पूर्वदृगादियोगित्वे परोक्षाकारा वर्त्तमानत्वे प्रत्यक्षाकारेति स्मरणाध्यक्षरूपा
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वर्त्तमानक्षण ही इन्द्रियगोचर होता है ।) अतः लाख बार स्मृति पूर्वोत्तरभाव का ढौकन करे उस से 10 क्या ? इन्द्रिय की उस के ग्रहणार्थ प्रवृत्ति स्वीकारार्ह ही नहीं है, अतः इन्द्रियजन्य प्रतीति की भी पूर्वोत्तरभावग्रहणार्थ प्रवृत्ति संभव नहीं है । कमल के रूप के ग्रहण में प्रवृत्त इन्द्रिय सुगन्ध की उपलब्धि करने के लिये कभी सक्षम नहीं होती, चाहे वहाँ स्मरण से सुगन्ध की उपस्थिति रहे तो भी।
आशंका :- सुगन्ध चक्षु का गोचर नहीं है अतः चाक्षुषज्ञान उस का नहीं हो सकता ।
उत्तर :- यह कथन इसलिये अनुचित है कि पौवापर्य के लिये भी यह दलील तुल्य है कि वह 15 इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष का गोचर नहीं है इसलिये प्रत्यक्ष से उस का भान असम्भव है, भले वह ( = पौर्वापर्य) स्मृति से उपस्थित हो ।
प्रश्न :- यदि प्रत्यभिज्ञा प्रत्यक्ष इन्द्रियजन्य नहीं है तो इन्द्रिय व्यापार के बाद ही प्रत्यभिज्ञा का उदय क्यों होता है ?
उत्तर :- नहीं होता । वहाँ तो पुरोवर्त्तीि विषय का दर्शन पहले होता है, बाद में प्रत्यभिज्ञा का 20 नहीं किन्तु पूर्वदृष्ट क्षण का स्मरण उदित होता है । जैसे पहले दूरवर्ती चन्दन आदि अर्थ का दर्शन होता है, बाद में सुगन्ध का स्मरण होता है तब 'सुगन्धि चन्दन' ऐसा अध्यवसाय होता है । [ लिङ्गजन्य 'सुरभि चन्दन' प्रतीति की तुल्यता प्रत्यभिज्ञा में ]
ऐसा नहीं कहना गन्ध नेत्र का विषय नहीं है अतः नेत्रप्रयोग के बाद 'सुगन्धि चन्दन' ऐसी बुद्धि जो होती है वह प्रत्यक्ष नहीं है किन्तु चन्दनरूप को देखने के बाद सुगन्ध के साथ व्याप्ति 25 के स्मरण से वहाँ रूपहेतुक सुगन्धानुमिति होती है।
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इस के प्रतिकार का कारण यह है ' वही क्योंकि पूर्वापरभाव तो नेत्र का विषय नहीं वर्त्तमान क्षण को देखने के बाद सादृश्यादि
है यह' यह प्रतीति भी हेतुजन्य अनुमिति ही होती है, है जिस से कि वह प्रत्यक्ष कहा जा सके । स्पष्ट देखिये के कारण पूर्वक्षण की स्मृति झलक ऊठती है, तब पूर्वभावविशिष्ट वर्त्तमानपुरोवर्त्तीिभाव का अनुमान बोध उदित हो जाता है, वहाँ फिर पूर्वकालादिसंसर्ग का अस्त हो जाने से इन्द्रियगोचरता न रह 30 पाने से उस को अध्यवसित करने वाली प्रत्यभिज्ञा का उदय होता है किन्तु इन्द्रियजन्य न होने के कारण वह प्रत्यक्षात्मक क्यों मानी जाय ? यदि आग्रह करेंगे तो सकल परोक्ष ज्ञान को प्रत्यक्ष मानने का अनिष्ट खड़ा होगा ।
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