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खण्ड-३, गाथा-५
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एवाऽप्रामाण्यं परोऽभ्युपगतवान् अन्यथा भेदानुभवमनादृत्य कथमतः सातिशयत्वं तस्यामवस्थायामभिमन्येत ? तथा, यद्यालम्बने भेदोऽप्यङ्गीक्रियते तदा को दोषो विशेषाभावादिति । क्रमत(?व)त्प्रत्यभिज्ञालक्षणकार्यदर्शनात् तदालम्बनस्यापि क्रम: सिद्धः। तदुक्तम् [प्र.वा.१-४५] -
'नाऽक्रमात् क्रमिणो भावो नाप्यपेक्षाऽविशेषिणः। क्रमाद् भवन्ती धीज्ञेयात् क्रमं (समं?) तस्यापि (सत्स)सेत्स्यति ।। इति ।
तदेवं न बहिरवस्थितैकार्थसम्प्रयोगेणेन्द्रियेण जन्यते प्रत्यभिज्ञा तद(?)भावाद् न प्रत्यक्षं नापि प्रमाणमिति स्थितम् । तथा च 'न हि स्मरणतो यत्' (६-११) इति वचनं सिद्धसाधनमेव । यतो यदेवंभूतं तद् भवावे)त् प्रत्यक्षम् न त्वेवं प्रत्यभिज्ञानम् इति का नो हानि: ? यतः पूर्वानुभूतधर्मारोपणाद् विना 'श(?स) एवायम्' इति ज्ञानं नोपजायते, तच्चाक्षजे प्रत्ययेऽसम्भवि ।
यदप्युक्तम्- देशादिभिन्नं सामान्याद्यालम्बनम् इति (७-२) - तदप्यसङ्गतम्, सामान्यादेरभिन्नस्य 10 अनाधेयातिशयता स्फुट बाधित होती है' अरे ! तब तो भेदावभास न होने पर भी उस अवस्था में अतिशयस्वीकार की तरह भेदस्वीकार क्यों न किया जाय ? आपने तो अनतिशयता के अनुभव में अनुमान से बाध यानी अप्रामाण्य मान लिया है, इस का इनकार करें तो फिर भेदानुभव का प्रतिषेध कर के उस अवस्था में सातिशयता को कैसे मान लिया ? तथा, सातिशयता की तरह आप आलम्बन (= विषय) । भेद को भी स्वीकार लो, क्या हानि है ?! कोई फर्क तो है नहीं।
15 सारांश, क्रमिक प्रत्यभिज्ञास्वरूपकार्य दिखता है इस लिये उस के आलम्बन में क्रम यानी भेद सिद्ध होता है। प्रमाणवार्त्तिक में कहा है - 'अक्रमिक (कारण) से क्रमिक भाव नहीं हो सकता | तथा अविशेषी (= अतिशयविशेषरहित) को किसी (सहकारी) की अपेक्षा नहीं होती (यानी सहकारीक्रममूलक क्रमभाविता भी नहीं हो सकती।)। अतः ज्ञेय (= आलम्बन) से क्रमशः होने वाली बुद्धि उस के क्रम को सिद्ध करेगी' ।।१-४५।।
अत एव, उक्त प्रकार से, प्रत्यभिज्ञा बाह्य-एक अर्थ के सम्प्रयोग (= संनिकर्ष) विशिष्ट इन्द्रिय से उत्पन्न नहीं होती यह सिद्ध होता है, इन्द्रियजन्य न होने से वह न तो प्रत्यक्ष है न तो प्रमाण है यह निश्चित हुआ। ऐसा जब सिद्ध हो गया, तब पहले (७-११) श्लोकवार्तिक की कारिकाओं से जो यह कहा था कि 'स्मृति के पहले प्रत्यक्ष नहीं होता ऐसा कोई राजकीय या लौकिक आदेश नहीं है, तथा स्मृति के पश्चाद् भी इन्द्रियप्रवृत्ति (यानी प्रत्यक्ष) नहीं होती ऐसा भी नहीं.'... इत्यादि वचन हमारे लिये तो 25 मान्य होने से सिद्ध साधन ही है। कारण, उन कारिकाओं द्वारा जिस प्रकार के प्रत्यक्ष का निरूपण है वैसी प्रत्यभिज्ञा होती नहीं है – फिर हमें क्या क्षति है उस कारिकोक्त प्रत्यक्ष के स्वीकार में ? कारण, स्पष्ट है कि 'वह्नि है यह' ऐसा ज्ञान पूर्वानुभूत धर्म के आरोपण के विना नहीं होता और इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष में किसी पूर्वानुभूत धर्म के आरोपण को स्थान नहीं होता।
[प्रत्यभिज्ञा में प्रमेयाधिक्य/ प्रामाण्य का असम्भव ] यह जो पहले कहा था (७-१६) – ‘भिन्न भिन्न अनेकदेशादि विशिष्ट सामान्य द्रव्यादि वस्तु प्रत्यभिज्ञा 1. इस श्लोक के उत्तरार्ध में प्र.वा. में 'ज्ञेयात्' के बदले 'कायात' और 'सत्सति' के स्थान में 'शंसति' पाठ है।
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