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गाथा-५
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त्सन्निधिः। असदेतत्- यतः पूर्वदर्शनावगतस्य वर्त्तमानदर्शनमिति ( न ? ) कुतश्चिदवगम्यते ? न तावद् दर्शनात् सन्निहित एव तस्य वृत्तेः । न च पूर्वदृष्टसन्निहितयोरेकत्वाद् वर्त्तमानदर्शनवृत्तिः, इतरेतराश्रयत्वप्रसक्तेःतयोरेकत्वाद् तद्दर्शनवृत्तिः तद्वृतेश्च तयोरेकत्वम् इतीतरेतराश्रयत्वम् ।
अपि (?) च तद्दर्शनवृत्तेर्नायं दोषः, तदप्रच्युतौ प्रमाणाभावात् । न च प्रत्युत्पन्नदर्शनमेव तत्र प्रमाणम् इतरेतराश्रयदोषप्रसक्तेः । तथाहि - पूर्वदृष्टाऽप्रच्युतौ प्रवर्त्तमानं दर्शनं प्रमाणं सिध्यति तत्प्रामाण्यात्व ( ? च्च) 5 पूर्वदृष्टस्याप्रच्युतिरिति व्यक्तमितरेतराश्रयत्वम् । न च परिस्फुटप्रतिभासादेव वर्त्तमाना दृक् प्रमाणम्, कामशोकाद्युपप्लुतविशददृश: प्रमाणताप्रसक्तेः । न च विसंवादात् सा अप्रमाणम् इयं तु विपर्ययात् प्रमाणम्, यतः संवाददृगपि पूर्वदृष्टेऽर्थे प्रवर्त्तमाना न प्रमाणतया सिद्धा अन्यत्राऽप्रवृत्ता ( न ?) संवादकृता, ततः पूर्वदृष्टार्थग्राहित्वे दृग् भ्रान्ता प्रसक्ता। अपि च उत्तरज्ञाने पूर्वदर्शनग्राह्यं किं तद्दृष्टेन रूपेण प्रतिभाति उत रूपान्तरेण ? यदि पूर्वदृष्टेन तथा सति पूर्वदृष्टरूपावभास एव न वर्त्तमानरूपपरिच्छेदः । अथ रूपान्तरेण, तत्रापि 10 वर्त्तमानदर्शनग्राह्यरूपतैव न पूर्वज्ञानग्राह्यता इति वर्त्तमानमेव तत् । न च ज्ञानद्वयावभासि रूपं तत्र रहता है। यदि पूर्वदृष्ट और वर्त्तमानसंनिहित एक होने के कारण वर्त्तमान दर्शन की उस में प्रवृत्ति होने का मानेंगे तो पुनः अन्योन्याश्रय प्रसक्त होगा, दोनों के एकत्व प्रसिद्ध होने पर वर्त्तमान दर्शन की प्रवृत्ति और उस की प्रवृत्ति सिद्ध होगी तभी उन का एकत्व सिद्ध होगा यह इतरेतराश्रय स्पष्ट है । [ वर्त्तमानदर्शनवृत्ति - अप्रच्युति का अन्योन्याश्रय ]
यदि कहें कि 'वर्त्तमानदर्शनवृत्ति वास्तविक होने से अन्योन्याश्रय दोष नहीं होगा ' तो यह भी ठीक नहीं है, क्यों कि वर्त्तमानदर्शनवृत्ति तो पूर्व विषय की वर्त्तमान में अप्रच्युति सिद्ध होने पर ही शक्य है, किन्तु प्रमाण के विना वही सिद्ध नहीं है । वर्त्तमानदर्शन को ही यहाँ अप्रच्युति प्रति प्रमाण नहीं दिखा सकते क्योंकि अन्योन्याश्रय दोष होगा । देखिये - पूर्वदृष्ट विषय की अप्रच्युति सिद्ध होने पर वर्त्तमान दर्शन का प्रामाण्य सिद्ध होगा, और उस के प्रामाण्य की सिद्धि होने पर पूर्वदृष्ट विषय की अप्रच्युति 20 सिद्ध होगी । स्पष्ट ही अन्योन्याश्रय । स्फुट प्रतिभासरूप है इस लिये वर्त्तमानदर्शन प्रमाण मान लेना अयुक्त है क्योंकि कामराग या गहरे शोकादि प्रसंग में भी अपने स्वजन का स्फुट प्रतिभास होता है किन्तु उन का दर्शन प्रमाण नहीं होता । 'वह दर्शन तो विसंवादी होने से प्रमाण नहीं, पूर्वदृष्ट दर्शन तो संवादी होने से प्रमाण मान लेंगे' यह भी शक्य नहीं, क्योंकि संवाददर्शन भी पूर्वदृष्टार्थ ग्रहण में प्रवृत्त होने पर भी प्रमाणरूप से सिद्ध नहीं है । अन्य अर्थ में प्रवृत्त होगा तो वह यहाँ संवादकारक नहीं होगा। अतः 25 यदि वह उत्तर क्षण में असत् पूर्वदृष्ट अर्थ का ग्रहण करेगा तो भ्रान्त ठहरेगा ।
[ पूर्वदृष्ट रूप के लिये दो प्रश्न ]
तथा, यह भी प्रश्न खडा होगा उत्तर दर्शन में पूर्वदर्शनदृष्ट अर्थ पूर्वदृष्टरूप से भासित होता है या अन्य स्वरूप से ? यदि पूर्वदृष्टरूप से, तो पूर्वदृष्टरूप का भासन तो होगा किन्तु वर्त्तमानरूप का भान नहीं होगा। यदि अन्य रूप से, तो वर्त्तमानदर्शनग्राह्यरूपता ही उस में सिद्ध होगी, न कि पूर्वज्ञानग्राह्यता । 30 मतलब कि वह वर्त्तमान ही भाव है, न कि भूत। ऐसा तो नहीं कह सकते कि 'पूर्वापरज्ञानद्वय में प्रतिबिम्बित रूप वहाँ दिखता है' क्योंकि वहाँ एक पल में दो ज्ञान की हस्ती ही नहीं है अतः
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खण्ड - ३
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