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खण्ड - ३, गाथा - ५
परोत्पत्त्यादिविप्रलम्भहेतोरुपजायमानं प्रत्यभिज्ञानं दुष्टकारणारब्धत्वादेवाऽप्रमाणम् । न च प्रत्यभिज्ञानमेव स्वविषयस्य तत्त्वं व्यवस्थापयददुष्टकारणारब्ध(त्व) मात्मनो निष्ठा ( ? श्चा) पयति, इतरेतराश्रयत्वप्रसक्तेः अदुष्टकारणारब्धत्वात् स्वविषयव्यवस्थापकत्वम् ततश्चादुष्टकारणारब्धत्वमिति कृत्वा । लूनपुनरुदितकेशादिषु चैकत्वाभावेऽप्यस्य दर्शनात् कुतः स्वविषयव्यवस्थापकत्वम् ? न च ( ?) केशादिप्रत्यभिज्ञानस्यान्यत्वाद् नायं दोषः अन्यत्रापि नियामक (?) मन्तरेण व्यभिचारशङ्काऽनिवृत्तेः । न च - यो जनित्वा प्रध्वंसते 'नैतदेवम्' 5 इति स मिथ्याप्रत्ययः, वज्रोपलादिप्रत्यभिज्ञानं तु देशान्तरादौ न विपर्येत्यवितथम् - अनुमानस्यात्रापि विपर्ययव्यवस्थापकस्य प्रतिपादितत्वात् । तन्न अदुष्टकारणारब्धत्वमप्यत्र संभवति ।
अर्थक्रियार्थी हि सर्वः प्रमाणमन्वेषते न व्यसनितयेत्यर्थक्रियासाधनविषयं प्रमाणमभ्युपगन्तव्यम् । न च प्रत्यभिज्ञानविषयेण स्थैर्यमनुभवताऽर्थक्रिया काचित् साध्यत इति तैमिरिकज्ञानवदपूर्वमर्थक्रियाऽक्षमं सामान्याद्यधिगच्छदपि न प्रमाणमिति प्रमाणलक्षणाभावाद् न प्रत्यभिज्ञाप्रमाण (म )ध्यक्षम् । सता नित्येनार्थेन 10 [ सदोषकारणजन्य होने से प्रत्यभिज्ञा अप्रमाण ]
जैसे छीप में रजत की कल्पना सदोष कारण से जन्य होती है इस लिये अप्रमाण होती है, उसी तरह पल पल में क्षणभंगुर तत्त्वों के प्रति समान अपर अपर तत्त्वों की उत्पत्ति आदि भ्रामक कारण से उत्पन्न होने वाली प्रत्यभिज्ञा भी दुष्ट कारण से जन्य होती है अतः अप्रमाण है । ऐसा नहीं है कि 'प्रत्यभिज्ञा स्वतः अपने विषय की यथार्थता को प्रकाशित करती हुई अपने को निर्दोषकारणजन्य घोषित 15 करती है' – क्योंकि यहाँ अन्योन्याश्रय दोष है । अपने विषय की यथार्थता का आधार है निर्दोषकारणजन्यत्वसिद्धि और निर्दोषकारणजन्यत्व की सिद्धि का आधार है स्वविषययथार्थता की प्रसिद्धि । तथा, काटने के बाद पुनर्जात केशादि के स्थल में एकत्व न होने पर भी 'यह वही है' ऐसा दर्शन होता है, यहाँ प्रत्यभिज्ञा अपने विषय की यथार्थता को प्रकाशित करेगी कैसे जब कि वह है नहीं ? यदि कहें कि 'केशादिस्थल में होने वाली प्रत्यभिज्ञा आभासिक होने से भले अप्रमाण हो उपलादि प्रत्यभिज्ञा वैसा न होने से दोष 20 नहीं ।' तो सोच लो कि उस में और इस में भेदघोषक कोई नियामक न मिले तब तक 'यह भी वैसी ही होगी' इस तरह होनेवाली व्यभिचार की शंका कैसे टलेगी ? यदि कहा जाय नियामक यह है, जो उत्पन्न हो कर ' यह यथार्थ नहीं' इस तरह विघटन का भोग बनता है वह बोध मिथ्या होता है । उपल या वज्रादि को अन्यदेश में फिराया जाय तो भी उस की प्रत्यभिज्ञा का विघटन नहीं होता अतः वह सत्य है ।' नहीं, इस प्रत्यभिज्ञा का विघटनद्वारा वैपरीत्यघोषक अनुमान पहले दिखाया जा चुका है। 25 निष्कर्ष, उपल-वज्रादि की प्रत्यभिज्ञा भी निर्दोषकारणजन्य नहीं मानी जा सकती ।
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[ अर्थक्रियासाधक न होने से प्रत्यभिज्ञा अप्रमाण
यह सोचिये कि 'प्रमाण' का आदर क्यों ? इसलिये कि हर कोई प्रेक्षावान् अर्थक्रिया सिद्धि के लिये ही 'प्रमाण' ढूँढता है । 'व्यसन' के कारण, सिर्फ शौख के लिये नहीं । यानी ऐसा ज्ञान 'प्रमाण' माना जायेगा जो अर्थक्रिया के साधनीभूत विषय को प्रकाशित करे । स्थैर्य का अनुभव करानेवाली प्रत्यभिज्ञा के विषय 30 से कोई अर्थक्रिया सिद्ध नहीं होती । तिमिरदोषग्रस्त आदमी चन्द्रद्वय को देखता है किन्तु उस से कुछ प्रयोजनसिद्धि नहीं होती क्योंकि वह अप्रमाण है, उसी तरह अर्थक्रिया के लिये अशक्त सामान्यादि को ग्रहण करनेवाला प्रत्यभिज्ञादि ज्ञान 'प्रमाण' नहीं होता क्योंकि उसमें प्रमाण की व्याख्या घट नहीं सकती अतः
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