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खण्ड-३, गाथा-५
४१ लम्भतः सिद्धः, केवलमत्र विवाद: ‘क्षित्यादयः किं क्षणिकास्तथाभूतविशेषारम्भकाः आहोस्विदक्षणिकाः' इति। तत्र च साहित्येऽपि न ते पररूपेण कर्तारः, स्वरूपं च तेषां प्रागपि तदेवेति कथं कदाचित् क्रियाविरामाः? इति क्षणिकतैव तेषामभ्युपगमनीया।
अथ तेषां समर्थहेतुत्वं कुतः ? परस्परोपसर्पणाद्याश्रयप्रत्ययविशेषात् तदन्वय-व्यतिरेकानुविधानदर्शनात् तेषां च प्राक् पश्चात् (पृथग्)भावः कारणाभावादिति नान्यदोदयप्रसङ्ग(:) प्रत्येकं चेति। 5
तृतीयपक्षोऽप्ययुक्तः, अपरापरप्रत्यययोगतः प्रतिक्षणं भिन्नशक्तीनां भावानां कुतश्चित् साम्यादेकताप्रतिपत्तावपि भिन्नस्वरूपत्वात् । न हि कारणानां भेदेऽप्येकरूपतैव भावस्याऽनिमित्तताप्रसङ्गात् । तथाहि- (??) यदि न कारण(भेद:)भेदादपि (ना?) भेद.... भेदस्वरूपं च कार्यम् तच्चेद् अहेतुकं विश्वस्य वैश्वरूप्यमहेतुकं भवेत् । न च कदाचित् किञ्चित्, एकमेव, वातातपशीतादीनां यथासम्भवं सर्वत्र भेदकारणानां भावात्।
द्वितीय पक्ष का अंगीकार भी अयुक्त है। कारण, यह तो प्रत्यक्ष-अनुपलम्भ (यानी अन्वय-व्यतिरेक) 10 से निर्विवाद सिद्ध ही है कि परस्पर अन्तरविहीन पृथ्वीआदि कारणसमूह कार्यजनन अनुकूल गुणविशेषाधान के लिये समर्थ होता है, क्योंकि हेतुओं का तथास्वभाव होता है। विवाद है तो इतना कि वे पृथ्वीआदि कारणसमूह जो कि तथाभूत गुणविशेषाधानकारक हैं। स्वयं क्षणिक है या अक्षणिक ? उस का निर्णय तो पहले हो चुका है कि (३४-७) वे मिलित होने पर भी पररूप से कर्ता नहीं होते, जिस रूप से कर्तृत्व होता है वह स्व-रूप तो नित्य में पहले भी सहकारि विरह में भी विद्यमान तदवस्थ ही है तो कभी कभी 15 (सहकारिविरह में) क्रियाविराम यानी निष्क्रियता कैसे ? निष्कर्ष, नित्य में यह अनुपपत्ति होने के कारण क्षणिकता का स्वीकार करना पडेगा ।
प्रश्न :- क्षणिक भाव में समर्थ हेतुत्व कैसे सिद्ध होगा ?
उत्तर :- परस्पर अन्तरविहीनरूप से मिलन आदि संबन्धि विशिष्टप्रतीति के बल पर कार्य के साथ उन के अन्वय-व्यतिरेक का अनुगमन दिखाई देता है। क्षणिक भाव का वर्तमान क्षण को छोडकर पूर्व- 20 पश्चाद अस्तित्व होता नहीं. तब उस क्षणरूप कारण का अभाव होने से पर्व या पश्चात काल में कार्य का उदय नहीं होता। अकेला भी उत्पादक नहीं होता।
[भिन्न कारणों में एकरूपता के अभाव का विमर्श ] तीसरा पक्ष- विशेषमात्र का अभाव, यह भी अयुक्त है। कारण, नये नये निमित्तों के सन्निधान से पल पल में जो भिन्न भिन्न शक्तिवाले भाव निपजते हैं, उन में आंशिक साम्य के जरिये एकत्व का भास 25 होने पर भी वे स्वरूपतः भिन्न यानी एकदूसरे से पृथग् विशेषता युक्त ही होते हैं। कारणों में भिन्नता होने पर भी एकरूपता का संभव हो नहीं सकता, फिर भी एकरूपता मानेंगे तो कारणों का कुछ महत्त्व न रहने से कार्यभावों में अहेतुकता का अतिप्रसंग आयेगा। कैसे यह देखो - कारणभेद होने पर भी कार्यों में भेद नहीं होगा तो अभेद प्रसक्त होगा। किन्तु कार्य तो भेदस्वरूप होता ही है। अतः अभेद नहीं हो सकता। यदि कार्यों में भेद मानेंगे तो समग्र विश्व में प्रसिद्ध वैविध्य निर्हेतुक मानना पडेगा। ऐसा कोई 30 क्षेत्र/काल है नहीं जहाँ सब एक ही हो, वायु-गर्मी-शैत्य जो कि सम्भवानुसार भेदप्रयोजक कारण है उन का सर्वत्र अस्तित्व है। इस प्रकार स्वभाव भेद सिद्ध है इसी लिये कभी कभी किसी एक कार्य के कुछ
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