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खण्ड-३, गाथा-५ व्यवच्छिद्यमानप्रकारेतरव्यवस्थापन प्रकारान्तरत्वं प्रकारान्तरंश्च (?) ततो बहिर्भावलक्षण: इत्यनयोस्तथाऽन्यथारूपयोः परस्परपरिहारलक्षणत्वात्। न चात्रापि (२८-३) बाधकान्तराशंकयाऽनवस्थानमाशंकनीयम् (??) पूर्वप्रसिद्धस्य विरोधस्य स्मरणमात्रत्वविरुद्धोपलब्धिषु हि धर्मिणि सद्भावमुपदर्शिविरोधमेव बाधकं (??) तस्माद् विरुद्धयोरेकत्रासम्भवात् प्रतियोग्यभावनिश्चयः शीतोष्णस्पर्शयोरिव भावाभावयोरिव वेति कुतोऽनवस्था ?
5 अथ कथं क्रम-योगपद्याऽयोगोऽक्षणिकेषु भावेषु ? – उच्यते ? न तावदक्षणिकाः क्रमेणार्थक्रियाकारिण: अकारकावस्थाविशेषात् प्रागेव द्वितीयादिक्षणभाविनः कार्यस्य क()रणप्रसंगाच्च तत्कारकस्वभावस्य प्रागेव सन्निधानात् । न च तदैव सन्निहितोपा(त्पादकानां कार्याणामनुदयो युक्तः पक्षा(?श्चा)दपि तत्प्रसक्तेः। न च सहकारिक्रमात् कार्यक्रम इति वक्तव्यम् यत: सहकारिणः किं विशेषाधायित्वेन तथा व्यपदिश्यन्ते आहोस्विद् एककार्यप्रतिनियता(मा)च्चक्षुरादयः इवाक्षेपकारिणः स्वविज्ञाने ? तत्र यदि प्रथमो विकल्पः, 10
पहले जो (२८-१७) अनुमान की चर्चा में बाधक की शंका ऊठा कर, उस बाधक के निरसन के लिये किये जानेवाले अन्य अनुमान मे पुनः बाधक शंका - इस तरह अनवस्था का प्रसञ्जन किया था वह निरवकाश है। जब पूर्वगृहीत विरोध का स्मरण पहले जाग्रत् हो जाने के बाद विरुद्धोपलब्धि हेतु प्रयोग किया जाता है तब साध्य धर्मी में साध्य उपदर्शक अनुमान हो जाता है तब उस अनुमान के विरोध से बाधक ही ठंडा हो जायेगा। कारण, विरुद्ध तत्त्वद्वय का एक वस्तु में समावेश संभव ही नहीं होने 15 से, एक विरुद्ध की उपलब्धि हो जाने पर अन्य प्रतियोगी के अभाव का निश्चय स्वतः हो जायेगा, जैसे शीत-उष्ण स्पर्शद्वय अथवा भावअभावद्वय में, फिर बाधक की शंका ही नहीं रहेगी तो अनवस्था कैसे ?
[अक्षणिक भाव में क्रम/यौगपद्य की असंगति ] प्रश्न :- तृतीयप्रकार का अभाव मान लिया, किन्तु अक्षणिक भावों में क्रमशः या युगपद् अर्थक्रियाकारित्व का मेल नहीं खाता - यह कैसे सिद्ध करेंगे ?
20 उत्तर :- अक्षणिक भाव क्रम से अर्थक्रियाकारी नहीं हो सकते क्योंकि द्वितीयादिक्षणभावि अर्थक्रिया का अकारकत्व जैसे प्रथम क्षण में है वैसे ही प्रथमक्षण की अर्थक्रिया के प्रति भी अकारकत्व तदवस्थ ही रहेगा। अथवा स्वभाव में तफावत न होने से पहले क्षण में जैसे प्रथमक्षणवाले कार्य का कारित्व है वैसे ही द्वितीयादिक्षणभावी कार्यों का भी सम्पादन प्रसक्त होगा, चूँकि द्वितीयादिक्षणकार्यकारकस्वभाव प्रथम क्षण में भी अक्षुण्ण है। जिन कार्यों के उत्पादक जिस क्षण में हाजीर हैं उन कार्यों का उस क्षण में उदय 25 कोई रोक नहीं सकता। यदि उस वक्त कार्य नहीं होगा तो बाद में भी उदय नहीं होगा। (जो आज नहीं हो सकता वह कल भी नहीं हो सकेगा।)
यह मत कहना कि - ‘उपादानात्मक कारण हाजीर होने पर भी सहकारी कारणों का योगदान आगे पीछे यानी क्रमिक होने से कार्यवृन्द भी क्रमिक होता है।' - ऐसा कहने पर तो और दो प्रश्न खडे होंगे - क्या कुछ विशेषता का कारण में आपादन करने के कारण वे सहकारी कहे जाते हैं ? या चक्षु 30 आदि जैसे अपने ज्ञानरूप एक कार्य के प्रति मिलकर नियतरूप से कार्योत्पादक होते हैं वैसे यहाँ एक कार्य के प्रति प्रतिबद्धता के जरिये वे सहकारी कहे जाते हैं ?
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