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१८-सम्यक्त्वपराक्रम (२) एव फल की आशा न रखते हुए कार्य करते रहना चाहिए।
जब तक वस्तु का गुण न जान लिया जाये तब तक उसके प्रति रुचि उत्पन्न नही होती । जो वस्तु पहले साधारण मालूम होती है, गुण का ज्ञान होने पर वही महान् मालूम होने लगती है। पत्रिकसम्पत्ति में मिले हुए हीरे को कोमत जब तक जान न ली जाये तब तक वह साधारण जान पडता है । मगर जव जौहरो उसकी कीमत अ कता है तब वही हीरा कितना कीमतो मालूम होता है । इसी प्रकार ऊपरऊपर से आलोचना का नाम तो लिया जाता है मगर आलोचना से प्राप्त होने वाले गुण की बात तो भगवान महावीर जैसे ज्ञान निधान से ही जानी जा सकती है। आलोचना के विषय मे भगवान् महावीर का कथन सुनने के बाद जब आलोचना आपको महान् प्रतीत होने लगे, तभी समझना चाहिए कि 'हमने भगवान् की वाणी सुनी है ।'
आलोचना का फल बतलाते हुए भगवान् ने कहा है'मोक्षमार्ग मे बाधा डालने वाली और अनन्त ससार की वृद्धि करने वाली माया का अ.लोचना द्वारा नाश होता है।'
भगवान् ने भाव-आलोचना का यह फल बतलाया है। आलोचना तो तुम भी करते होगे, मगर पहले यह देख लो कि तुम्हारे हृदय से कपट निकला है या नही ? अगर तुमने कपट का त्याग करके आलोचना की है तो वह सही पालोचना है । अन्यथा दुनिया को ठगने के लिए और हमने आलोचना की है, यह कहने के लिए की गई आलोचना खोटी मालोचना है। माया-कपट का लेश भी जिसमे न हो, वही गुद्ध आलोचना है । जो माया मोक्षमार्ग मे बाधा उपस्थित करती है और अनन्त-ससार वढाती है, उस माया