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तेरहवां बोल-१६६
रगुण हैं । उत्तरगुण कहलाने वाले सात व्रत मूलगुणो के लिए वाड के समान हैं । मगर ध्यान रखना चाहिए कि बाड उसी खेत में लगाई जाती है, जिसमे कुछ हो। जिस खेत मे कुछ भी नही होता, उस खेत के चारो ओर बाड लगाना व्यर्थ समझा जाता है । किसी श्रावक मे उत्तरगुण न हो परन्तु मूलगुण हो तो उसे शास्त्र इतना अनुचित नही मानता, जितना अनुचित मूलगुण न होना मानता है । मूलगुणो के प्रति तनिक भी सावधानी न रखते हुए केवल उत्तरगुणो से चिपटे रहना एक प्रकार का ढोग है । उहाहरणार्थ कोई मनुष्य व्यवहार में हिसा, असत्य, चोरी, व्यभिचार और परधन का हरण करता रहता है और धर्मस्थान में जाकर सामायिक करने का दिखावा करता है, तो उसका यह दिखावा ठीक नही कहा जा सकता । इतना ही नहीं, ऐसा करने वाला व्यक्ति अपने धर्म और धर्मगुरु को भी लजाता है। इससे विपरोत कोई मनुष्य सामायिक तो नहीं करता किन्तु स्थूल हिंसा भी नहीं करता बल्कि दुखी जीवों पर अनुकम्पा करना है, सत्य बोलता है, प्रामाणिकता रखता है और इसी प्रकार अन्य मूलगुणो का पालन करता है तो वह घर में बैठा-बैठा भी साधुओ की महिमा बढाता है । इस प्रकार उत्तरगुणो के लिए मूलगुणो का होना आवश्यक है और मूलगुण होने पर उत्तरगुणो को अपनाने की इच्छा स्वत. उत्पन्न होगी। जिसमे मूलगुण होगे, वह अपने मूलगुणो को विकसित करने के लिए उत्तरगुणो को अपनाएगा ही । इस प्रकार मूलगुणो के साथ ही उत्तरगुणो की शोभा है । प्रत्याख्यान करने से मूलगुणो और उत्तरगुणो को धारण किया जा सकता है ।