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अठारहवां बोल-२३६ सार वीतराग द्वारा कथित शास्त्र का, आगम का पठन-पाठन करना स्वाध्याय है। दूसरे द्वारा रचे ग्रन्थो या शास्त्रो को पठन-पाठन करने से कभी-कभी भ्रम मे पड़ जाने का अन्देशा रहता है, मगर वीतराग कथित आगम के पठनपाठन से भ्रम मे पड़ने का कोई भय नही रहता । जिनवाणी का अध्ययन करने से आत्मा का कल्याण ही होता है, अकल्याण नही हो सकता ।
शास्त्रकारो ने स्वाध्याय के पाच भेद बतलाये हैं(१) वाचना (२) पृच्छना (३) पर्यटना (४) अनुप्रेक्षा और (५) धर्मकथा । स्वाध्याय के यह पाच भेद है । सूत्र जैसा है उसे वैसा ही पढना वाचना है, परन्तु यह सूत्रवाचना गुरुमुख से ही लेनी चाहिए। गुरुमुख से वाचना न ली जाये तो प्रायश्चित्त आता है । इस प्रकार गुरुमुख से ली जाने वाली वाचना स्वाध्याय का पहला भेद है ।
स्वाध्याय का दूसरा भेद पृच्छना है । गुरुमुख से जो वाचना ली गई है, उसके विषय मे पूछताछ करना पृच्छना है । जैसे जानवर देखे-परखे बिना घास खा जाता है, उसी प्रकार देखे-परखे विना सूत्र नही वाचना चाहिए । उसके विषय मे हृदय मे तर्क-वितर्क अथवा पूछताछ करना चाहिए। ऐसा करने से किसी को किसी प्रकार की शका ही नही रहेगी। हृदय में उत्पन्न हुई गका को शका के ही रूप में नही रहने देना चाहिए, वरन् उसे दूर करने के लिए पूछताछ अवश्य करना चाहिए । इस प्रकार की पूछताछ करने को ही पृच्छना कहते हैं।
जो वाचना गुरुमुख से ली गई है और जिसके विषय मे पृच्छना करके हृदय की शका दूर की गई है, उस सूत्र