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उन्नीसवां बोल-२५३
मेरी मान्यता तो यह है कि मोटर चलने से लाभ के बदले हानि ही हुई है। मगर इस दृष्टान्त द्वारा मैं यह बतलाना चाहता हूं कि जैसे ड्राइवर होने पर ही मोटर का उपयोग हो सकता है । ड्राइवर के अभाव मे मोटर बेकार पडी रहती है। इसी प्रकार शास्त्ररूपी मोटर चलाने वाला अर्थात् वाचना देने वाला कुशन और सरकारी गुरु न हो तो शास्त्ररूपी मोटर गड्ढे में गिर जाये और उसका परिणाम भयकर हो, यह स्वाभाविक ही है । अतएव जिस प्रकार ड्राइवर मोटर चलाते समय सावधान रहता है, उसी प्रकार सूत्र की वाचना देने वाले गुरु को भी वाचना देते समय पूरापूरी सावधानी रखनी चाहिए । अगर कुशल ड्राइवर की तरह वाचना देने वाला गुरु कुशल और सस्कारी हो तो शास्त्ररूपी मोटर ठीक चल सकती है ।।
कहने का आशय यह है कि जिस प्रकार ड्राइवर मोटर चलाने मे सहायक कहा जा सकता है, उसी प्रकार सूत्र की वाचना देने वाल' भी गणधर के धर्म का अवलम्बन करने वाला हैं अर्थात् सूत्र को वाचना देने वाला भी तीर्थधर्म का अवलम्बन करता है ।
इससे आगे भगवान् कहते हैं तीर्थधर्म का अवलबन लेने वाले को महान् निर्जरा होती है। दूसरे महान् तप से भी जो निर्जरा नही हो सकती, वह निर्जरा स्वाध्याय अर्थात् वाचनारूप तप से होती है । वाचना देना और स्वाध्याय क ना भी एक प्रकार का तप है । महान् निर्जरा करने वाला मोक्ष प्राप्त करता है । महान् निर्जरा मोक्षप्राप्ति का एक मार्ग है। वाचना देने वाले को, वाचना देते समय सदैव इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि मैं सूत्र की वाचना