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उन्नीसवां बोल-२५५
उसकी भाव-पूजा ही हो सकती है। उसकी द्रव्य-पूजा की आवश्यकता नहीं है ।
अब यह भी विचारना चाहिए कि शास्त्र सुनते समय किस प्रकार की सावधानी रखनी चाहिए ? प्राय. देखा जाता है कि शास्त्र की वाचना के समय कुछ लोग दोनो हाथ बाघ करके ऐसे बैठ रहते है मानो शास्त्र श्रवण करना कोई काम ही नही है । ऐसे लोगो के हृदय मे शास्त्र का रहस्य कैसे उतर सकना है ? एक आदमी सावधान होकर शास्त्र सुनता है और दूसर। वेदरकारी के साथ सुनता है। इन दोनो के शास्त्र-श्रवण मे कितना अन्तर है, यह बात वकरी और भैस के पानी पीने के उदाहरण से समझी जा सकती है । बकरी भी पानी पीती है और भैम भी पीती है । मगर दोनो के पीने मे कितना अन्तर है ? भैस निर्मल जल को भी गॅदला करके पीती है जब कि बकरी निर्मल जल ही पीती है। वह गॅदला जल नही पीती । गास्त्र-श्रवण करने वाले भी दो प्रकार के हैं। कुछ लोग बकरी के समान निर्मल शास्त्र-श्रवण का रसपान करते है और कुछ लोग भैस की भाति शास्त्र-श्रवण को मलीन करके रमपान करते हैं । जो लोग सावधानी के साथ शास्त्र का श्रवण करते हैं, वे महान् निर्जरा का कार्य करते हैं । अतएव शास्त्र सुनने मे पूरी-पूरी सावधानी रखनी चाहिए ।