Book Title: Samyaktva Parakram 02
Author(s): Jawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
Publisher: Jawahar Sahitya Samiti Bhinasar

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Page 282
________________ २४२-सम्यक्त्वपराक्रम (२) ज्ञानावरण कर्म का क्षय होना है, अतएव वह फल मुझे प्राप्त करना है । इस बात पर लक्ष्य रखते हुए ही मुझ स्वाध्याय करना चाहिए । दर्पण के ऊपर का मैल इसीलिए साफ किया जाता है कि मुंह भलीभाँति दिवलाई दे सके। यह माना जाता है कि जिस दर्पण में मुह ठीकठीक दिखाई पड़े वह दर्पण साफ है। इसी प्रकार यह भी कहा जा सकता है कि जिस स्वाध्याय के द्वारा ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय हो, वही सच्चा स्वाध्याय है। प्राचीन काल मे विद्यार्थी जब विद्याध्ययन समाप्त करके गुरुकुल से विदाई लेते थे, तब गुरु उन्हे यह शिक्षा देते थे-'हे शिष्यो । स्वाध्याय करने मे प्रमाद मत करना । स्वाध्याय द्वारा जो वस्तु हितकारी प्रतीत हो उसे स्वीकार करना और जो अहितकर प्रतीत हो उसे त्याग देना । स्वाध्याय से धर्म का भी स्वरूप विदित होता है और अधर्म का भी । इन दोनो मे से धर्म को स्वीकार करना और पाप का परित्याग करना चाहिए । दीपक के प्रकाश मे अच्छी वस्तु भी देखी जा सकती है और साँप-विच्छ वगैरह भी देखे जा सकते है । मगर अच्छी वस्तु देखकर ग्रहण की जाती है और खराब वस्तु देखकर छोड दी जाती है । दीपक के प्रकाश से अगर साँप दिखाई देता है तो लोग साँप से दूर भाग जाते है और यदि कोई अच्छी चीज नजर आती है तो उसे ग्रहण कर लेते हैं। इसी प्रकार स्वाध्याय से अच्छी बाते भी मालूम होती हैं और बुरी बाते भी जानने मे आती हैं। इन दोनो अच्छी-बुरी बातो मे से, हे शिष्यो! अच्छी बात ग्रहण करो और बुरो ब.ते त्याग दो।"

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