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२४८-सम्यक्त्वपराक्रम (२)
में भगवान से प्रश्न किया गया है । स्वाध्याय का पहला भेद वाचना है । अतएव सर्वप्रथम वाचना के विषय मे भगवान् से यह प्रश्न किया गया है
मूलपाठ
प्रश्न-वायणाए णं भंते ! जीवे कि जणय ?
उत्तर- वायणयाए णं निज्जरं जणयइ, सुग्रस्स प्रणा. सायणाए (अणुसज्जणाए) वट्टइ, सुअस्स य अणासायणाए (अणुसज्जणाए) वट्टमाणे तित्थवम्म अवलबइ, तित्थमवलवमाणे महानिज्जरे महापज्जवसाणे हवइ ।
शब्दार्थ प्रश्न- हे भगवन् । वाचना से जीव को क्या लाभ
होता है ?
उत्तर- शास्त्र की वाचना से कर्म की निर्जरा होती है। सूत्र-प्रेम होने से ज्ञान मे वृद्धि होती है और ऐसे सूत्रप्रेम से तीर्थङ्करो के धर्म का अवलम्बन मिलता है । तीर्थ'हरो के धर्म का अवलम्बन मिलने से कर्म की महान् निर्जरा होती है और निप्कर्म अवस्था प्राप्त होती है ।
व्याख्यान वाचना के विपय में विशेष विचार करने से पहले यह विचार कर लेना चाहिए कि वाचना का अर्थ क्या है? वाचना लेने के योग्य शिष्य को गुरु सिद्धान्त का जो वाचन कराता है, उसे वाचना कहते हैं । वाचना का अर्थ सुगम'