________________
उन्नीसवां बोल-२४६
करने के लिए टीकाकार कहते हैं कि गुरु उपदेशक या प्रयोजक होकर शिष्य को शास्त्र पढाता है। यही शास्त्र पढाने की क्रिया वाचना कहलाती है।
वाचना लेने वाला शिष्य तो सुपात्र होना ही चाहिए, लेकिन व चना देने वाले गुरु में क्या गुग होने चाहिए, यह विचार लेना आवश्यक है । वाचना देने वाला अच्छा हो तो वाचना लेने वाले और देने वाले - दोनो को ही लाभ होता है । भगवान् मे वाचना के षि मे यह प्रश्न किया गया. है कि हे भगवन ! वाचना देने वाले को क्या लाभ होता है ? इस प्रश्न के उत्तर मे भगवान ने पहली बात यह कही है कि वाचना देने वाले के कर्मों को निर्जरा होती है ।
सामान्यरूप से तो निर्जरा, मन, वचन और कायइन तीनो से होती है परन्तु यहा मन द्वारा निर्जरा होने की प्रधानता जान पड़ती है, क्योकि वाचना देने में मन को एकाग्र रखना पडता है । कहा भी है -
मन एव मनुष्याणां कारणं वन्धमोक्षयोः ।
अर्थात् - मन ही मनुष्यो के बन्ध और मोक्षं का कारण है।
इस प्रकार मन को बन्ध और मोक्ष का कारण बतला कर वाचना देने वाले को यह सूचित कर दिया है कि वाचना देने वाले को ऐसा नही मानना चाहिए कि मैं शिष्य को वाचना दे रहा हू, या मैं शिष्य को पढा रहा हू वरन् ऐसा समझना चाहिए कि मैं सूत्र की वाचना देकर अपने कर्मों की निर्जरा कर रहा हूं । ऐसा मानकर शिष्य को सूत्र को वाचना देने मे वाचना देने वाले को अत्यन्त आनन्द होता है, यही नहीं उसमे कायरता नहीं आती और साथ ही