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२४०-सम्यक्त्वपराक्रम (२)
वाचना को विस्मृत न होने देने के लिए परिवर्तना करते रहना चाहिए । सूत्रवाचना का परावर्तन करना स्वाध्याय का तीसरा भेद है।
स्वाध्याय का चौथा भेद अनुप्रेक्षा है। अनुप्रेक्षा का अर्थ तत्त्व का विचार करना है । सूत्रवाचना के विपय मे तात्त्विक विचार करना अनुप्रेक्षा है। इस प्रकार मूत्रवाचना, पृच्छना, पर्यटना ओर अनुप्रेक्षा करने के बाद धर्मकथा करने का विधान किया गया है।
धर्मकथा स्वाध्याय का पाचवा भेद है। स्वाध्याय का स्पष्ट अर्थ करते हुए टीकाकार कहते हैयत् खलु वाचनादेरासेवनमत्र भवति विधिपूर्वम् । धर्मकथान्तं श्रमशः तत् स्वाध्यायो विनिर्दिष्टः ।।
अर्थात्- वाचना, पृच्छना से लेकर धर्मकथा पर्यन्त का विधिपूर्वक सेवन करना स्वाध्याय है ।।
टीकाकार ने वाचना आदि के विधिपूर्वक सेवन को स्वाध्याय कहा है । तो फिर स्वाध्याय की विधि क्या है, यह भी जानना चाहिए । मगर अन्य ग्रन्थो मे स्वाध्याय का कैसा महत्व बतलाया गया है, यह जान लेना आवश्यक है। योगसूत्र मे स्वाध्याय का महत्व प्रकट करते हुए कहा है
स्वाध्यायादिष्टदेवतासम्प्रयोगः । __ अर्थात-स्वाध्याय से इष्ट देवता का सप्रयोग होता है । मूलसूत्र में तो सिर्फ यही कहा गया है कि स्वाध्याय से इष्ट देवता की कृपा होती है, मगर भाष्यकार इससे भी मागे बढकर कहते है कि स्वाध्याय करने वाले मनुष्य का दर्शन करने के लिए देवता भी दौड़े आते है और इस वात