Book Title: Samyaktva Parakram 02
Author(s): Jawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
Publisher: Jawahar Sahitya Samiti Bhinasar

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Page 278
________________ २३८-सम्यक्त्वपराक्रम (२) आवश्यक है कि क्षमापणा और स्वाध्याय के बीच परस्पर क्या सम्बन्ध है ? स्वाध्याय और क्षमापणा का सबन्ध वतलाते हुए टीकाकार कहते हैं कि स्वाध्याय करने के लिए सर्वप्रथम आवश्यकता है चित्त के विकार दूर करने की । लोक मे कहावत है कि प्रत्येक शुभ कर्म मे स्वच्छ होकर प्रवृत्त होना चाहिए । अतएव शुद्ध होकर स्वाध्याय करना उचित है, मगर वह शुद्धता बाह्य नही आन्तरिक भो होनी चाहिए । ससार मे वाह्य स्वच्छता देखी जाती है, आन्तरिक स्वच्छता उतनी नजर नहीं आती । मगर वास्तव मे प्रान्तरिक स्वच्छता की बड़ी आवश्यकता है । आन्तरिक स्वच्छता क्षमापणा द्वारा होती है । क्षमापणा आन्तरिक मल को दूर कर, अन्तरग को स्वच्छ बनाने का सुन्दर से सुन्दर साधन है । क्षमापणा द्वारा आन्तरिक शुद्धि करने के पश्चात् निकम्मा नही बैठ रहना चाहिए, वरन् स्वाध्याय करना चाहिए । स्वाध्याय करने से क्या लाभ होता है ? यह प्रश्न भगवान से पूछा गया है। इस प्रश्न के उत्तर मे भगवान ने कहा है - है शिष्य ! स्वाध्याय करने से ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का क्षय होता है। अब विचार करना है कि स्वाध्याय का अर्थ क्या है? सु+अध्याय अर्थात् सुष्ठ अध्याय स्वाध्याय कहलाता है । अध्याय का अर्थ है. ~ पठन-पाठन । मगर पठन-पाठन तो कामशास्त्र आदि का भी हो सकता है । मगर यहा ऐसे पठन-पाठन का प्रकरण नहीं है। यह बात बतलाने के लिए 'अध्याय' शब्द के साथ 'सु' उपसर्ग लगाया गया है । 'सु' उपसर्ग का अर्थ सुष्ठु या श्रेष्ठ होता है । इस प्रकार स्वाध्याय का अर्थ होता है-श्रेष्ठ पठन-पाठन । जैन शास्त्र के अनु

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