________________
चौदहवां बोल - १९५
1
को भाग्यशाली मानते हैं, उसी प्रकार सद्गुणो के लिए भो यही विचार करना चाहिए कि दूसरा कोई सद्गुणो को अपनावे या न अपनावे, मैं तो अपनाऊगा ही ! सद्गुणो को अपनाने से अवश्य लाभ होता है । सद्गुणो का लाभ हुए बिना रह ही नही सकता । अतएव सद्गुण धारण करके परमात्मा की प्रार्थना करो तो तुम्हारा कल्याण ही होगा । धर्म समाजगत हो नही, व्यक्तिगत भी है । अतएव जो धर्म का पालन करेगा उसी को लाभ होगा । धर्म सदैव कल्याणकारी है । धर्म को जोवन मे स्थान देने से कल्याण अवश्य होगा ।
ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूपी बोधि की प्राप्ति स्तवस्तुतिरूप मंगल से होती है, यह वात पहले कही जा चुकी है । बोधि की प्राप्ति होना सम्पूर्ण जैन धर्म की प्राप्ति होने के बराबर है । इस प्रकार स्तव और स्तुति रूप मंगल से सपूर्ण जैनधर्म की प्राप्ति होती है । कहा भी है
भत्तिए जिणवराणं परमाए खोणदोसाणं । श्रारुग्गबो हिलाभं समाहिमरणं च पार्श्वेति ॥
अर्थात् जिनके राग और द्वेष क्षीण हो गये हैं, उन जिनवरो की परमभक्ति करने से जीव सशय आदि दोषो से रहित सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र का लाभ करता है और अन्त मे समाधिमरण पाता है । ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूप बोधि से सम्पन्न जीव अन्तक्रिया का फल प्राप्त करता है ।
अन्तक्रिया का अर्थ बतलाते हुए कहा जा चुका है कि जिस क्रिया द्वारा भव या कर्म नष्ट होते हैं वह क्रिया अन्तक्रिया कहलाती है । इस प्रकार अन्तक्रिया करता है,