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२२४-सम्यक्त्वपराक्रम (२) रहेगा वह जीव कहलाता है । और जो अपनी ही सत्ता से जीवित है उसे 'सत्व' कहते हैं। प्राणी शब्द से दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय और चार इन्द्रिय वाले जीवो का वोध होता है । भूत शब्द से वनस्पति आदि का बोध होता है । सत्व शब्द से पृथ्वी, पानी, वायु और अग्निकाय के जीवो का ग्रहण होता है। जीव शब्द से पचेन्द्रिय प्राणियो का ग्रहण होता है । भेद-विचार से इस प्रकार का बोध होता है।
भगवान् का कथन है कि प्राणी, भूत, जीव ओर सत्त्व को खमाने वाला सभी जीवो के प्रति मैत्रीभावना उत्पन्न करता है।
अपनी परम्परा मे तो चौरासी लाख जीवयोनियों को खमाने की रीति प्रचलित है, मगर जहाँ विरोध उत्पन्न हुआ हो वहां क्षमा मागना ही सच्ची क्षमायाचना की कसौटी है। दूसरे के दिल को दुख पहुचाया हो, हृदय में कलुषता उत्पन्न की हो, इसी प्रकार दूसरे की तरफ से अपने हृदय मे विरोध या कलुपता की उत्पत्ति हई हो तो उस विरोध और कलुपता को क्षमा के आदान-प्रदान द्वारा शान्त कर डालना ही सच्ची क्षमापणा है । एकेन्द्रिय अथवा द्वीन्द्रिय आदि जीवो की ओर से तुम्हे किसी प्रकार का सताप हुआ हो तो उसे भूल जाना चाहिए और हृदय में किसी भी प्रकार की कलुषता नही रहने देना चाहिए । अपना हृदय सर्वथा वैरहीन बना लेना ही क्षमापणा का उद्देश्य है विश्व के समस्त जीवो के प्रति निरभाव रखना और विश्वमैत्री पनपाना एव विकसित करना क्षमापणा का महान् आदर्श और उद्देश्य है । सब जीव तो खैर दूर रहे, किन्तु मनुष्यों