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२२८ - सम्यक्त्वपराक्रम ( २ )
आराहणा । तम्हा श्रप्पणा चेव उवसम्मिएव्वं, स किमाह भते ! उवसमं उवसमसारं सामण्णं ।
बृहत्कल्पसूत्र । इस सूत्रपाठ का भावार्थ यह है कि जिसके साथ तुम्हारी अनवन या बोलचाल हो गई हो, उसकी इच्छा हो तो तुम्हारा आदर करे, इच्छा न हो तो आदर न करे, उसकी इच्छा हो तो तुम्हे वन्दना करे, इच्छा न हो तो वन्दना न करे, उसकी इच्छा हो तो तुम्हारे साथ भोजन करे, इच्छा न हो तो साथ भोजन न करे, उसकी इच्छा हो तो तुम्हारे साथ रहे, इच्छा न हो तो साथ न रहे, उसकी इच्छा हो तो उपशात हो जाये, इच्छा न हो तो उपशान्त न हो । तुम उसके इन कृत्यों को मत देखो, अपनी ओर से क्षमायाचना कर लो। तुम तो अपनी ओर ही देखो | दूसरा खमाता है या नही, यह देखने की आवश्यकता नही । तुम तो अपने अपराध के लिए क्षमा माग लो और उसके अपराध के लिए अपनी ओर से क्षमा कर दो। वह तुम्हारा अपराध क्षमा करे या न करे, तुमसे क्षमायाचना करे या न करे, मगर तुम अपनी श्रोर से तो क्षमा मांग ही लो और क्षमा दे भी दो ।
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यह कथन सुनकर शिष्य ने भगवान् से पूछा- भगवन् । ऐमा किसलिए करना चाहिए ? इस प्रश्न के उत्तर मे भगवान् ने कहा - श्रमणता का सार उपशान्त होना है, अत तुम उपशान्त हो जाओ ।
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शास्त्र में यह कहकर साथ ही यह भी कहा है कि तुम उसे खमाओ और वह तुम्हे न खमावे तो तुम उसकी निन्दा