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२३०-सम्यक्त्वपराक्रम (२)
भगवान् ने क्षमापणा का यह फल बतलाया है। मगर इस फल की प्राप्ति उन्हे होती है जो सच्चे हृदय मे क्षमायाचना करते है और क्षमादान करते हैं । केवल प्रथा का पालन करने के लिए क्षमा मागना और देना एक बात है और हृदय से क्षमा का आदान-प्रदान करना दूसरी बात है । किस प्रकार हृदय से क्षमायाचना की जाती है और दी जाती है, इस विपय में एक प्रसिद्ध उदाहरण देना उपयोगी होगा। ' सोलह देशो के महाराजा उदायन की स्वर्णगुटिका नामक दासी को उज्जैन का राजा चडप्रद्योत चुरा ले गया। दासी चुराई गई है, यह बात उदायन के कानो मे पडी, फिर भी श्रावक होने के कारण उसने चडप्रद्योत को महमा दंड देने की व्यवस्था नही की । उसने दासी को लौटा देने का सन्देश चडप्रद्योत के पास भेजा । उदायन के इस सदेश के उत्तर मे अभिमान से भरे चडप्रद्योत ने कहला भेजा'हम राजा है । रत्नभोक्ता हैं । श्रेष्ठ रत्न प्राप्त करके भोगने का हमे अधिकार है । दासीरत्न को हम अपने बलवृते पर ले आये है । क्षत्रिय किसी चीज की याचना करना नही जानते । हम अपनी शक्ति के भरोसे दासीरत्न लाये हैं और उसे लौटा नही सकते । अगर उदायन राजा मे शक्ति हो तो वह अपनी दासी को वापिस ले जावे । मागने से दासी नहीं मिल मकेगी।'
चडप्रद्योत ने अपने सैन्य बल के अभिमान मे मस्त होकर यह उत्तर दिया । उदायन ने चडप्रद्योत का यह उत्तर सुनकर कहा- 'चोरी करना क्षत्रियों का धर्म है । और मागना क्षत्रियो का धर्म नही है ! उसने मुझे कायर