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२२०-सम्यक्त्वपराक्रम (२) प्राप्त की जा सकती है। तब उनके ईसाई मित्रो का कहना था कि पाप का सारा वोझ ईसु पर ही डाल देना चाहिए। ईसु पर विश्वास रखने से वह हमारे समस्त पाप धो डालता है। गाँधीजी ने इस दलील के उत्तर में कहा था कि पाप नो करना मगर उसका दड न भोगना, यह उचित कैसे कहा जा सकता है ? मै तो पाप के दड से नही बचना चाहता । मै पापवृत्ति से ही बचना चाहता हूँ।
इस प्रकार दूसरे लोग पाप से बचने के बदले पाप के फल से बचना चाहते हैं, परन्तु जैनधर्म कहता है कि पाप के परिणाम से बचने की कामना मत करो, पाप से ही वचने की इच्छा करो और उसके लिए प्रायश्चित्त करो ।
नरक मे भी दो प्रकार के जीव है- सम्यग्दष्टि और मिथ्यादृष्टि । सभ्यग्दृष्टि पाप को बुरा समझते है, नरक को नही । मगर मिथ्यादष्टि नरक को बुरा समझ कर गालियां देते हैं । सम्यग्दृष्टि पाप को बुरा समझता है और पाप को नष्ट करने के लिए प्रायश्चित्त करता है, मगर मिथ्यादष्टि नरक को खराव समझता है और उसे गालिया देकर और अधिक पापकर्म उपार्जन करता है । जैनशास्त्र का आदेश है कि पाप से बचो, पाप के परिणाम से बचने की इच्छा मत करो। | इस कथन को दृष्टि मे रखकर तुम अपने कर्तव्य का विचार करो। इस कथन का सार यही है कि पापवत्ति से बचते रहना चाहिए, फिर भी कदाचित् पाप हो जाये तो उसके फल से बचने की कामना नहीं करनी चाहिए वरन् फल भोगने के लिए तैयार रहना चाहिए । मानना चाहिए कि मैं जो दुख भोग रहा हू वह मेरे ही पाप का परिणाम