Book Title: Samyaktva Parakram 02
Author(s): Jawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
Publisher: Jawahar Sahitya Samiti Bhinasar

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Page 228
________________ १९४-सम्यक्त्वपराक्रम (२) पतिव्रता केवल अपने एक पति का ही चित्त प्रसन्न रखना चाहती है और वेश्या अनेक पुरुपो का चित्त प्रवन्न रखने की कोशिश करती है। इन दोनो मे से आपकी दृष्टि मे कौन वडा है ? कहने को तो तुम पतिव्रता को ही बड़ी कहोगे, मगर अपने कथन के अनुसार आचरण भी करते हो या नही ? तुम पतिव्रता को इसलिए बड़ी मानते हो कि वह पतिव्रत का भलीभाति पालन करती है, लेकिन यही वात 'तुम अपने लिए क्यो नही अपनाते ? पतिव्रता स्त्री मे सिनेमा की नटी के समान नाज नखरे नजर नही आते लेकिन ससार को टिकाये रखने की और गार्हस्थजीवन को सुखी बनाने की जो शक्ति पतिव्रता मे है, वह वेश्या या सिनेमा की नटी मे नही है। कहने का प्राशय यह है कि जैसे पतिव्रता के हृदय में प्रत्येक समय पति का ही ध्यान बना रहता है, उसी प्रकार तुम्हारे हृदय में प्रतिक्षण परमात्मा का ही ध्यान होना चाहिए। ऐसा नहीं होना चाहिए कि अमुक इस प्रकार नहीं करता तो मै ही ऐसा क्यो करूँ ? तुम्हारे कान मे कीमती मोती है और दूसरे के कान मे नही है, इसी कारण तुम मोती फेक नहीं देते वरन् उस मोती को पहन कर अपने को भाग्यशाली समझते हो । व्यवहार में जव ऐसा विचार नही रखते हो तो फिर धर्म के कार्य में यही विचार क्यो नही रखते कि दूसरा कोई धर्म करे या न करे, मैं तो धर्म करूगा ही। जैनधर्म के अनुसार प्रत्येक आत्मा धर्म करने मे स्वतन्त्र है । अतएव कोई दूसरा धर्मकार्य करे या न करे तो भी अपने को तो धर्मकार्य करना ही चाहिए । जैसे दूसरो के पास मोती न होने पर भी लोग मोती पहनते है और अपने

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