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२०४-सम्यक्त्वपराक्रम (२)
काल एक जगत्प्रसिद्ध वस्तू है किन्तु उसे समझने वाले और उसका महत्व समझ कर उससे लाभ उठाने वाले लोग बहुत कम है । काल का ज्ञान प्राप्त करने के लिए और काल से लाभ उठाने के लिए ही व्यवहार मे ज्योतिषशास्त्र बना है । काल को समझने के लिए ही घडी तथा इसी प्रकार के अन्य साधन निकले हैं । शास्त्र में कहा है कि काल भी छह द्रव्यो मे से एक द्रव्य है । किन्तु काल स्वतन्त्र द्रव्य नही वरन् औपचारिक द्रव्य है । पचास्तिकाय की षड्गुणहानि वृद्धि का माप काल कहलाता है, अतएव काल स्वतन्त्र द्रव्य न होकर औपचारिक द्रव्य है ।
काल शब्द की व्युत्पत्ति तीन प्रकार से होती है-भावसाधन घान्त से, कर्मसाधन घान्त से और करणसाधन घान्त से । भावसाधन घन्त से काल की व्युत्पत्ति करते हुए कहा गया है 'कलन काल' अर्थात गणना को काल कहते है। 'कल्यते य. स काल.' अर्थात जिसकी गणना की जाये वह काल है, यह काल शब्द की कर्मसाधन घान्त व्युत्पत्ति है। करणसाधन घनन्त की दृष्टि से काल शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए कहा है- 'कल्यतेऽनेन इति काल.' अर्थात् जिसके द्वारा गणना की जाये वह काल है। इस प्रकार काल की व्युत्पत्ति भिन्न-भिन्न प्रकार से की जाती है। इन सब व्युत्पत्तियो का संग्रह करते हुए एक गाथा मे कहा गया है -
कलणं पज्जायाण कलिज्जए तेण वा जो वत्थु ।
कलयति तय तम्मि व समवाइ कलासमूहो वा ॥ . इस गाथा का भाव यह है कि यह नया है, यह पुराना है, इत्यादि व्यवहार को भी काल ही कहते है । समय, घड़ी,