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सोलहवां बोल-२१५
यहाँ विशेष शब्द से उसी पाप को ग्रहण करने का सकेत किया गया है। उदाहरणार्थ-कोई-कोई प्राणातिपात ऐसा होता है, जिसका प्रतिकार नही किया जा सकता । जैसे, शास्त्रीय विधि के अनुसार एक जगह से पैर उठाकर दूसरी जगह रखने से भी हिंसा होती है । किन्तु इस प्रकार की हिंसा का निवारण नहीं हो सकता । यह हिंसा शरीर के साथ लगी हुई है -जब तक शरीर नब तक यह हिसा भी अवश्यभावी है । अतएव इस प्रकार की हिंसा का प्रायश्चित्त भी नही है । एक हिंसा शास्त्र द्वारा निषिद्ध है और दूसरी शरीर के साथ लगी है । दोनो प्रकार की हिंसा में से शास्त्रनिषिद्ध हिंसा का तो प्रतीकार हो सकता है परन्तु शरीर के साथ लगी हुई हिंसा का प्रतिकार नही हो सकता। अतएव शरीर के साथ लगी हिसा का प्रायश्त्ति भी नही है।
__ शास्त्र मे जिन पापो का वर्णन है, उन सब के दो कारण हैं । कोई-कोई क प्पिया पाप है और कोई-कोई दप्पिया पाप है । अर्थात् कोई पाप तो लाचार होकर करना पडता है और कोई पाप अहकार से किया जाता है । पाप भले ही लाचार होकर किया जाये या अहकार से किया जाये, पर पाप तो दोनो ही है । पाप का प्रकार कोई भी क्यो न हो, मगर पाप आखिर है तो पाप ही । इस प्रकार के पाप के लिए भावप्रायश्चित्त करने से जीव को क्या लाभ प्राप्त होता है ? इस प्रश्न के उत्तर मे भगवान् ने कहा हैभावप्रायश्चित्त द्वारा जीव पापकर्म की विशुद्धि करता है ।
भगवान् के दिये हुए उत्तर से यह स्पष्ट हो जाती है कि , पाय' या 'प्राय' का अर्थ पाप है और प्रायश्चित्त का अर्थ पाप का विशोधन करना है । प्रायश्चित्त करने से