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सोलहवां बोल-२१३
व्या
है और जीव व्रतो में लगे अतिचारो से रहित हो जाता है, शुद्ध मन से प्रायश्चित्त ग्रहण करके कल्याणमार्ग और फल की भी विशुद्धि करता है तया क्रमश चारित्र एव चारित्र के फल (मोक्ष) का आराधन कर सकता है ।
व्याख्यान सन्मति प्राप्त करना या पाप का छेदन करना एक ही बात है । भले ही इनमे शाब्दिक अन्तर हो मगर वास्तविक अन्तर नही है । प्रायश्चित्त का अर्थ पाप का छेदन करना या चित्त की शुद्धि करना है। पाप का छेदन करना, चित्त की शुद्धि करना अथवा सन्मति प्राप्त करना एक ही बात है ।
प्रायश्चित्त के प्रश्न के पहले कालप्रतिलेखन का प्रश्न आया है । स्वाध्याय आदि के लिए काल का प्रतिलेखन न करने से या स्वाध्याय न करने से अथवा अकाल मे स्वाध्याय करने से प्रायश्चित्त आता है।
जो मनुष्य कोई कार्य करता है, उसी के कार्य में गुण या दोष हो सकता है। काम ही न करने वाले के काम मे गुण-दोष कहा से आएगा । घोडे पर सवारी करने वाला ही कभी गिर सकता है । जो कभी घोडे पर सवार ही नही होता, उसके लिए गिरने का प्रश्न ही उपस्थित नही होता। इसी प्रकार जो स्वाध्याय करता है, उसी को स्वाध्याय सम्बन्धी अतिचार लग सकता है और अतिचार को दूर करने के लिए ही प्रायश्चित्त का विधान किया गया है।
प्रायश्चित्त शब्द की व्युत्पत्ति अनेक प्रकार से की गई है । सब व्युत्पत्तियों को बतलाने का समय नही है, अतएव