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२००-सम्यक्त्वपराक्रम (२)
वहुत से लोग कहा करते हैं-अभी धर्मकरणी करके क्या करे ? आजकल मोक्ष तो मिला है नही, मिलता है सिर्फ स्वर्ग, सो वह बहुत धर्म क्रिया से भी मिल सकता है और थोडी धर्मक्रिया से भी मिल सकता है। ऐसा कहने वालो से ज्ञानीजनो का कथन है कि ऐसा समझकर धर्मक्रिया करने मे आलस्य करना भूल है। धर्मक्रिया करते समय इसी भव मे मोक्ष मिलेगा, ऐसा मानना ही हितकर है । इसी भव मे मोक्ष न मिला तो न सही, धर्मक्रिया करने से तुम मोक्ष के पथिक तो बनोगे ही। अतएव धर्मक्रिया करने मे प्रमाद मत करो । शास्त्र का कथन है कि जीव अगर आराधक हो, फिर भी इसी भव मे मोक्ष न जाये तो पन्द्रहवे भव मे तो अवश्य ही मोक्ष जायेगा । अतएव आराधक बनने में प्रमाद करना योग्य नहीं है । तुम्हे जो सामग्री मिली है उसका उपयोग धर्मक्रिया में करना ही आराधक होने का मार्ग है । परमात्मा की भक्ति करना, स्तुति करना सरल से सरल काम है। अगर इतना सरल काम भी तुम न कर सके तो दूसरे काम कैसे कर सकोगे ?
इस ससार मे एक तो शुद्धता है और दूसरी अशुद्धता है। अशुद्धता से निकल कर शुद्धता मे प्रवेश करना ही हमारा कर्तव्य है । मान लीजिए, आपके गाव मे दो तालाव है। एक तालाव का पानी मलीन और दूसरे का निर्मल है। ऐसी स्थिति मे आप किस तालाव मे स्नान करना चाहेगे? आप यही कहेगे कि निमेल तालाव मे ही स्नान करना उचित है। इस विपय मे आप भूल नही करते । मगर यही बात अपने हदय और आत्मा के विषय मे सोचो । आप अपने हदय मे शुद्ध विचार लाकर भी उसमें आत्मा को स्नान करा