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चौदहवां बोल-१६१ उसमें ऐसा पाठ आया है
अंतकिरियं कप्पविमाणोववत्तियं पाराहणं पाराहेइ।
कतिपय आचार्य इस पाठ का अर्थ यह करते हैं कि 'अन्त किरिया' शब्द मे का 'अ' अक्षर प्रश्लेष होकर 'अ अन्तकिरिया' शब्द बन जाता है, जिसका अर्थ यह है कि जीव उसी भव में मोक्ष नही जाता किन्तु परम्परा से मोक्ष प्राप्त करता है । इस कथन का अर्थ यह हुआ कि जान, दर्शन और चारित्र की जिस आरावना से देवलोकन्या विमान मे उत्पत्ति होती है उस आराधना से कल्प या अनुत्तर विमान मे उत्पत्ति होती है और फिर परम्परा से जीव मोक्ष पाता है । .
कहने का आशय यह है कि स्तव और स्तुति रूप मगल से सपूर्ण जैनधर्म की प्राप्ति होती है, फिर भले ही मोक्ष उसी भव मे मिले या परम्परा से, किन्तु जिस धर्म से मुक्ति प्राप्त होती है उस सपूर्ण जैनधर्म की प्राप्ति तो स्तव और स्तुति मगल से ही होती है । अतएव एकान्त भाव से स्तुति और स्तव रूप मगल करते रहना चाहिए । अगर बडी स्तुति या स्तव हो सके तो ठीक ही है, अन्यथा परमात्मा की स्तुति में कहे दो शब्द भी पर्याप्त हैं। वास्तव मे महापुरुषो के, प्रेति अपने भाव समर्पित कर देने चाहिए। जैसे चन्दनवाला ने भगवान् महावीर को उडद के छिलके दान दिये थे । यहाँ विचारणीय यह है कि कीमत उडद के छिलको की थी या भावो की ? वास्तव मे कीमत उडद के छिलको की नही, हृदय के भावो की थी । अतएव तुम भी भगवान् को अपने भाव समर्पित कर दो। तुम्हे सब प्रकार की सामग्री प्राप्त हुई है, फिर अपने भाव भगवान् के प्रति क्यो अर्पित नही करते ?