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१९६-सम्यक्त्वपराक्रम (२) यह कहने का अर्थ यह हग्रा कि स्तव और स्तुति रूप भावमगल करने वाला जीव ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूप वोधि का लाभ करके मुक्ति प्राप्त करता है । मुक्ति का कारण अन्तक्रिया ही है, इसलिए वह अन्तक्रिया भी कहलाती है।
शास्त्रकागे ने सामग्री के भेद से चार प्रकार की अन्तक्रिया बतलाई है । जैसा कि श्री स्थानागसूत्र में कहा है
चत्तारि अंतकिरियानो पण्णतामो, तजहा तं खलू इमा पढमा अंतकिरिया अप्पकम्मपचाएया वि भवई, मे णं मुंडेभवित्ता अगारामो अणगारियंपन्वइए, संजमबहुले, संवरयहुले, समाहिबहुले, लूहे, तीरट्ठी, उवहाणव, दुक्खक्खवे, तवस्सी, तस्स ण णो तहप्पगारे तवे भवई, जो तहप्पगार देयणा भवई, तहप्पगारे पुरिसजाए दोहेणंपरियावेणं सिज्झई, धुझई, मुच्चई, परिणिव्वाई, सव्वदुक्खाणमतं करेई, जहा से भरहे राया चाउरंत चक्कवट्टी, पढमा अंत किरिया ।
अर्थात् - एक होने पर भी सामग्री के भेद से अन्तक्रिया के चार भेद किये गये हैं । इस चार प्रकार की अन्तक्रिया में से पहली अन्तक्रिया का स्वरूप बतलाते हुए कहा गया है कि इस ससार मे कोई-कोई पुरुप ऐसा होता है कि जो सम्भवत. देवलोक आदि मे गमन करके, अल्पकर्मी होकर अर्थात अनेक कर्मो का उच्छेद करने के पश्चात मनुप्यलोक में आता है । वह मनुष्यलोक मे मुडित होता है अर्थात् द्रव्य से घर-द्वार छोडकर, केशलोच करके और भाव से अविवेकरूप राग-द्वेप से बाहर निकलकर अनगारप्रवजित होता है। इस प्रकार प्रव्रज्या लेकर वह पृथ्वीकाय आदि की रक्षा करता हुआ सुसयमवान बनता है और परिपूर्ण सयमी होकर आनन रोकने के लिए अथवा इन्द्रियों