________________
१६०-सम्यक्त्वपराक्रम (२)
प्राप्त होना बतलाया है ।
सच्चे हृदय से प्रार्थना करने वाला प्रार्थी, प्रार्थ्य ( जिसकी प्रार्थना की जाये) के सर्वस्व का अधिकारी वन जाता है। एकाग्रचित्त से ध्येय पर पहुचने का ध्यान करने से ध्येय तक पहुँच सकते है, इसी प्रकार सच्चे हृदय से प्रार्थना करने पर परमात्ममय बना जा सकता है ।
भगवान् कहते है कि स्तव-स्तुतिरूप भावमगल करने से जीव ज्ञान, दगंन और चारित्ररूपी बोधि प्राप्त कर सकता है। रत्नत्रयरूप बोधि प्राप्त करने से जीव अन्तक्रिया कर सकता है । अन्तक्रिया का सामान्य अर्थ है--अन्तिम क्रिया । अन्तिमक्रिया अर्थात वह क्रिया जिसके बाद फिर कोई भी क्रिया न करनी पड । अथवा जिस क्रिया से भव का अन्त हो जाये और फिर कभी भव न धारण करना पड़े उसे अन्तक्रिया कहते है ।
संसार मे पुन.-पुन जनमना और मरना भव कहलाता है । इस प्रकार के भव का अन्त हो जाना अन्तक्रिया है । अतएव स्तव-स्तुतिरूप भावमगल का फल उसी भव मे मोक्ष जाना है । कदाचित् उसी भव मे मोक्ष प्राप्त न हो तो जीव कल्पविमान मे, मनुत्तरविमान मे या नवनवेयक वगैरह मे जाता है । स्तव और स्तुतिमगल करने से ज्ञान, दर्शन, चारित्ररूप वोधि का लाभ प्राप्त होने पर भी कभीकभी हृदय के भाव ठीक नहीं रहते, इस कारण उसी भव मे मोक्ष नही मिलता। फिर भी ऐसा जीव विश्रान्ति लेकर मोक्ष जाता है और विश्रान्ति लेने के लिए वह श्रेष्ठ विमान मे ही जन्म लेता है।