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चौदहवाँ बोल-१८६,
इससे विपरीत क्रम किस उद्देश्य से रखा गया है ? इस प्रश्न का समाधान करने के लिए टीकाकार का यह कथन है कि यह आर्षवचन है । आषवचन मे व्याकरण के नियमो का पालन होना अनिवार्य नही है और पालन न होना अनुचित ' नही है । आर्षवचन पर व्याकरण के नियमो का प्रभाव नही पडता । अलबत्ता अर्थ करते समय इस क्रम का ध्यान रखना चाहिए ।
स्तव और स्तुतिमगल करने से जीव को क्या लाभ होता है ? इसके सम्बन्ध मे भगवान् ने कहा है --यह भावमगल है। इस कथन का तात्पर्य यह हुआ कि स्तव और स्तुति भावमगल के लिए करना चाहिए । किसी भी सासारिक कामना से किया जाने वाला स्तव या स्तुति भावमगल नही है । भावमगलरूप :स्तव या स्तुति सम्यग्दुष्टि ही कर सकता है । ।
स्तव और स्तुतिरूप भावमगल करने से जीव को क्या लाभ हाता है ? इस सम्बन्ध मे भगवान् ने कहा है -स्तवस्तुतिरूप भावमगल करने से जीव को ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूप बोधि का लाभ होता है । ज्ञान, दर्शन और चारित्र जैनधर्म का सार है। अगर आप जैनधर्म के सारभूत ज्ञान, दर्शन और चारित्र की प्राप्ति करना चाहते है तो शास्त्र कहता है कि स्तव और स्तुतिरूप भावमगल करो । शास्त्र का यह कथन दृष्टि में रखते हुए आपसे बारम्बार यह कहा जाता है कि इस कलियुग मे परमात्मा की प्रार्थना का शरण लो। हालाकि मैं जो प्रार्थना बोलता हूँ वह बालभाषा मे है, इसलिए उसका स्तुति मे समावेश होता है और इस प्रकार की स्तुति का फल भगवान् ने ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूप बोधि