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१८६-सम्यक्त्वपराक्रम (२)
बालभापा वगैरह किसी भी भाषा में की जा सकती है। शास्त्र सभी के कल्याण के लिए है और सभी को उनकी शक्ति-अनुसार वह कल्याण का मार्ग बतलाता है । इसी हेतु से स्तव के साथ स्तुति का भी कथन किया है। अर्थात् यह कहा है कि शक्ति हो तो स्तव करो, अन्यथा स्तुति करो । जैसी शक्ति हो वहो करो, लेकिन जो भी कुछ करो, भावपूर्वक ही करो । भाव से की हुई स्तुति मे या स्तव मे त्रुटि रह जाये तो भी कल्याण है । इस विषय मे एक कथा प्रसिद्ध है । वह इस प्रकार है
किसी राजा ने एक चोर को शूली की सजा दी । उसने दूसरे लोगो पर अपराध के दण्ड का आतक जमाने के लिए शूली चढाने की जगह नागरिक जनता को भी बुलाया और सब लोगो को आजा दे दी कि कोई भी मनुष्य चोर को सहायता न दे । चोर को शूली पर चढाने का हुक्म दिया गया और सब लोग अपने-अपने घर लौट गये। जिस जगह चोर को शूली दी जानी थी, उस जगह से निकलते हुए सभी लोग चोर की निन्दा करते जाते थे । एक श्रावक भी उसी जगह से निकला । चोर को देखकर उसने सोचा कि मुझे चोर की निन्दा नही करनी चाहिए किन्तु चोरी की निन्दा करनी चाहिए। चोरी करके दण्ड भोगने वाला पुरुष तो करुणा का पात्र है।
कितने ही लोग दु.खी को देखकर कहते हैं कि यह तो अपने कर्मों का फल भुगत रहा है । इस पर करुणा कैसी ? लेकिन वास्तव मे करुणा का पात्र तो दु.खी जीव ही है। दूसरे के दु.ख को अपना दुख मानना ही करुणा है।