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१८४ - सम्यक्त्वपराक्रम ( २ )
इस प्रश्न का उत्तर यह है कि शक्रेन्द्र एक ही है और मनुष्य बहुत है । इसी कारण उसका किया हुआ स्तव हमे दिया गया है, क्योकि उसका स्तवन व्यवस्थित है । अगर मनुष्यो का किया हुआ स्तव उसे दिया गया होता तो यह झगडा उत्पन्न हो जाता कि यह मेरा स्तवन है । इसी प्रकार मनुष्यो का बनाया हुआ स्तवन मनुष्यो को दिया जाता तो भी इसी प्रकार का झगड़ा पैदा होता ! अतएव हमें शक्रेन्द्र का स्तव दिया गया है । इसके अतिरिक्त मनुष्य में इहलोक सम्बन्धी भावना भी होती है और इस कारण मनुष्य के प्राय प्रत्येक कार्य मे इहलौकिक भावना चिपटी रहती है । मनुष्य के बनाये स्तव मे ऐहलौकिक भावना भी आ सकती है ।
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शक्रस्तव में कहा गया है कि मैं अरिहत भगवान् को नमस्कार करता हू । इसके पश्चात् भगवान् कैसे है, यह बतलाया गया है । लेकिन इस स्तव के प्रारम्भ पर से यह शका हो सकती है कि जब 'अरिहत' पद दिया है तो फिर भगवन्त' कहने की क्या आवश्यकता थी ? इस प्रश्न का समाधान करने के लिए श्री रायपसेणीसूत्र को टीका में श्री मलयगिरि आचार्य ने कहा है- अरिहन्त नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव, इन चार निक्षेपो से होते है । यह स्तवन भावअरिहन्त को ही करना है, इसी कारण अरिहन्त के साथ भगवन्त विशेषण भी लगाया गया है ।
तुम्हारे लिए भी यही उचित है कि नाम, स्थापना और द्रव्य को छोडकर भाव-अरिहन्त का स्तव करो । भावअरिहन्त का स्तव करने से क्या लाभ होता है, यह भगवान् ने बतलाया ही है ।