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१८२-सम्यदत्वपराक्रम (२) शकेन्द्रस्तव आदि स्तव कहलाते है । स्तव-स्तुतिरूप मगल करने से ज्ञान, दशन और चारित्ररूपी बोध का लाभ होता है । बोध का लाभ प्राप्त होने से जीव कल्पवासी देव होता है और फिर ज्ञान, दशन और चारित्र का पाराधन-सेवन करके मोक्ष प्राप्त करता है ।
व्याख्यान स्तव-स्तुतिमगल करने से जीव को जो लाभ होता। है, उस पर विचार करने से पहले स्तत्र स्तुतिमगल के अर्थ । पर विचार करना उपयोगी होगा । र 'थव' का अर्थ स्तव ओर 'थुइ' का अर्थ स्तुति है। स्तव मे ऐसा नियम होता है कि स्तव अमुक प्रकार का ही होना चाहिए लेकिन स्तुति के लिए ऐसा कोई नियम नहीं है । करने वाला अपनी इच्छा के अनुसार स्तुति कर सकता है । जैसे - भगवान् का स्तव करते हुए कहा गया है -
___ नमोत्थु णं अरिहताण, भगवताण, प्राइगराण, तित्थयराणं, सयंसबुद्धाण, पुरिसुत्तमाण, पुरिससीहाण, पुरिसवरपुंउरीयाणं पुरिसवरगवहत्थोण, लोगुत्तमाणं, लोगनाहाणं, लोगपईचाणं, लोगपज्जोयगराण, अभयदयाण, चक्खुदयाण, मग्गदयाण , सरणदयाण, जीवदयाण, बोहिदयाण, धम्मदयाण, धम्मदेसियाण , धम्मनायगाण, धम्मसारहीण, धम्मवरचाउरंतचक्कवट्टीण, दीवो ताण, सरणगईपइद्वाण, अप्पडियवरनाणसणधराण, वियदृछउमाण , जिणाण, जावयाण, तिनाण, तारयाण, बुद्धाण , वोहियाण, मुत्ताण मोयगाण, सम्वन्नण, सव्वदरिसीण, सिवमयलमत्यमणतमक्खयमब्वाहमपुणरावित्तिसिद्धगइनामधेयं ठाणं सपत्ताणं नमो जिणाण जियभयाण ॥