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१७२-सम्यक्त्वपराक्रम (२) भूखो मर रहा हो और उसकी खोजखवर तक न लो ! इसी प्रकार तुम्हारे पास अनावश्यक वस्त्र ट्रको मे भरे पडे रहे और दूसरा मनुष्य कडकडाती हुई ठड मे सिकुडकर मर रहा हो फिर भी उसे कपडा न दो । तव इन दुःखी मनुष्यो मे तुम्हारे प्रति द्वेप को भ वना उपन्न हा और द्वषभाव से प्रेरित होकर वे तुम्हारा बन लूटने के लिए तैयार हो जाएँ यह स्वभाविक है। कदाचित तुम कहोगे कि कंगाल लोग हमारा क्या बिगाड़ सकते है ? मगर यह समझना भूल है । यह कगाल लोग थोड़े नही है और फिर आज तुम्हारे पास जो धन है वह इन्ही से तुम्हारे पास आया है। अतएव तुम्हे विचारना चाहिए कि जब वस्तु भेद नहीं करती तो फिर मुझे भेद करने का क्या अधिकार है ? वस्तु तो किसी प्रकार का भेद नहीं करती। जो भोजन तुम्हारी भूख शान्त कर सकता है वह क्या दूसरो की भूख नही मिटा सकता ? इस प्रकार जब वस्तु भेद नहीं करती तो तुम क्यों भेद करते हो ? प्राचीनकाल मे तो ऐसे-ऐसे लोग हो गये हैं, जिन्होने स्वय भूखे रहकर भी दूसरो को भोजन दिया ! अगर तुम उन सरीखे नहीं बन सकते तो कम से कम इतना तो कर सकते हो कि तुम्हारे पास जो वस्तु अधिक हो उसे दवाकर मत बैठ रहो । तृष्णा के वश होकर दूसरो के दुख की उपेक्षा तो मत करो ! तृष्णा की पूर्ति न कोई कर सका है और न कभी हो ही सकेगी । अतएव इच्छा का निरोध करके तृष्णा को रोको। इस विषय में जो बात जैनशास्त्र कहता है, वही बात महाभारत मे भी कही गई है । महाभारत में कहा है -
यश्च कामसुखं लोके, यञ्च दिव्यं महत्सुखं । तृष्णाक्षयसुखस्यते नाहन्ति षोडशी कलाम् ॥