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तेरहवां बोल-१७३
इस श्लोक का आशय यह है कि, इस लोक मे किसी को चक्रवर्ती जैसा पद भले ही प्राप्त हो जाये और देव सम्बन्धी दिव्य सुख भी मिल जाये, इन दोनो सुखो को तराजू के एक पलडे मे रख दिया जाये और दूसरे पलड़े मे इच्छा निरोध का सुख रखा जाये, तो यह दोनो सुख इच्छानिरोध के सुख की तुलना मे सोलहवी कला भी प्राप्त नही कर सकते । तात्पर्य यह कि दिव्य सुख, इच्छानिरोध के सुख के सोलहवे भाग के बराबर भी नही हैं ।
यद्यपि तृष्णाविजय का सुख ऐसा हो है, फिर भो ससार के लोग तृष्णा मे ही सुख मानते हैं, मगर तृष्णा से न किसी को सुख मिला है और न मिल ही सकता है। ज्ञानीजन कहते है कि तृष्णा से सुख कदापि नही मिल सकता । अतएव अगर सुखी बनना चाहते हो तो तृष्णा को जीतो।
तुम जिस वस्तु की कल्पना करते हो वह तृष्णा के लिए ही है और जिस चीज मे सुख मानते हो, वह भी तृष्णा का पोषण करने के लिए ही है । किसी भी चीज मे जो कोई सुख मानता है- सो वह तृष्णा ही सुख मानता है। तुम सुख नही मानते । उदाहरणार्थ- कान मे पहने हरा मोतियो को तुम न देख सकते हो और न चख या सघ ही सकते हो, फिर भी मोती पहन कर कान को किस कारण कष्ट देते हो । केवल तृष्णा के ही वश होकर । जिस वस्तू मे कोई स्वाद नहीं आता और न जिससे भूख-प्यास ही मिटती है, उसे पहनना दु.खरूप है या सुखरूप ? तुम धन को सभाल कर रखते हो सो किसके लिए ? इसलिए कि मैं धन के द्वारा अमुक काम करूगा । इसी बात को ध्यान मे