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३०-सम्यक्त्वपराक्रम (२)
'कहने का आशय यह है कि आलोचना में सरलता धारण करनी चाहिए। अपने में कोई दोष आ गया हो तो उसे काटे के समान समझकर निकाल देना चाहिए । शरीर मे काटा लग गया हो तो उसे वाहर निकालना चाहिए या अन्दर हो रहने देना चाहिए ? काटा तो बाहर ही निकाला जाता है । इसी प्रकार मायागल्य, निदानशल्य और मिथ्यादर्शन-शल्य भी आत्मा के काटे के समान है। इस विविध शल्य को आत्मा मे रहने देना किस प्रकार समुचित कहा जा सकता है ? किसी भाले की नौंक टूटकर शरीर में घुसं जाये तो उसे निकालने मे विलम्ब नही किया जाता, इसी प्रकार इस त्रिविध शल्य को तत्काल बाहर निकाल देना चाहिए । आलोचना द्वारा ही शल्य बाहर निकाले जा सकते हैं । अतएव अकृत्यो को आलोचना करने में भीरुता या कायरता मत दिखाओ। आज- बनिया बनकर जो आघात तुम पीठ पर सहन करते हो, वही आघात वीर बनकर छाती पर सहन करो और अपने पापो का प्रायश्चित्त करो। इसी मे आत्मा का कल्याण है ।
भगवान् से यह प्रश्न किया गया था कि आलोचना से क्या लाभ होता है ? इस प्रश्न के उत्तर मे भगवान ने फरमाया है कि आलोचना द्वारा सरलता प्राप्त होती है ।' भगवान् का यह उत्तर हमें यह शिक्षा देता है कि सच्ची आलोचना वही है जो सरलतापूर्वक की जाये अथवा जिसके करने पर सरलता प्रकट हो शास्त्र में कहा है कि जिस अपराध का दण्ड एक मास का है, उसकी आलोचना निष्कपटभाव से की जाये तो एक ही मास का दण्ड दिया जाता है । लेकिन कपट सहित आलोचना करने पर दो मास का दण्ड