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छठा बोल
श्रात्मनिन्दा
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श्री उत्तराध्ययन सूत्र - के २९ वे अध्ययन के पाँचवे बोल - आलोचना के विषय में विचार किया जा चुका है । शास्त्र में शिष्य ने प्रश्न पूछे हैं और भगवान् ने उनका उत्तर दिया है । यद्यपि यह प्रश्नोत्तरी गुरु-शिष्य के बीच हुई है, फिर भी यह सकल संसार के लिए हितकर है । अतएव इस प्रश्नोत्तरी पर ध्यान देना आवश्यक है ।
आलोचना की सफलता आत्मनिन्दा पर निर्भर है । श्रालोचना आत्मनिन्दापूर्वक ही होनी चाहिए । इसी कारण शिष्य ने आलोचना के अनन्तर आत्मनिन्दा के विषय में प्रश्न पूछा है । प्रश्न इस प्रकार है
प्रश्न - निंदणयाए ण भते ! जीवे किं जणयइ ? उत्तर - निदणयाए णं पच्छाणुतावं जणेइ, पच्छाणुतावेणं विरज्जमाणे करणत्रुणसें पडिवज्जइ, करणगुण से ढिपडिवन्ने य श्रणगारे मोहणिज्ज कम्मं उग्धाएइ ॥ ६ ॥
शब्दार्थ
प्रश्न- भते । आत्मनिन्दा से जीव क्या पाता है ?
उत्तर - आत्मदोषो को निन्दा पश्चात्ताप की भट्ठी मुलगाती है । पञ्चात्ताप की भट्ठी मे दोष भस्म हो जाते है