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... [-ग्यारहवाँ बोल-१५३
+ने उत्पन्न होता है, वैसा ही अपने को मानने लगता है। + इस प्रकार मान-बैठने का कारण मोह है । आत्मा में जो
ममत्व और, अजान है, उसी के कारण ऐसा होता है। परन्तु 1. आत्मा को इस बात का विचार करना चाहिए कि मैं क्या . रक्त-मांस हूं.? इस प्रश्न पर विचार व करने के कारण ही - आत्मा सयमयोग से जुदा पड़ गया है. जब आत्मा आठ
प्रवचनो का पालन करता हुआ भावतिक्रमण करता है तब .. उसकी सयमयोग से भिन्नता नही रहतो और- एकता स्थापित - हो जाती है । .
- यह तो निश्चय की बात हुई कि भावप्रतिक्रमण से
आत्मा को सयमयोग से जो जुदाई है, वह मिट जाती है। लेकिन - निश्चय की यह बात हम व्यवहार मे कैसे समझे ? जैन- सिद्धान्त मे ऐसी-ऐसी विशेषताएँ भरी पड़ी हैं कि उनका
वर्णन करना भी अत्यन्त कठिन है. । कुछ लोग तो केवल - निश्चयनय को ही इस प्रकार पकड बैठते हैं कि व्यवहार
की ओर आँख उठाकर भी नही देखते..। इसके विपरीत . कुछ लोग ऐसे भी हैं जो व्यवहार मे ही रह जाते हैं और
निश्चय का विचार तक नहीं करते । परन्तु जैन-सिद्धान्त . निश्चय और व्यवहार -दोनो को एक साथ रखता है। इसीलिए यहा यह. देखना - है कि भावप्रतिक्रमण से आत्मा की सयमयोग के साथ अभिन्नता होती है, इस निश्चय की बात को व्यवहार मे किस प्रकार समझ सकते है ? इस प्रश्न के उत्तर मे शास्त्र का कथन है कि जब भावप्रतिक्रमण होगा तब इन्द्रिया सुप्रणिहित होगी अर्थात् इन्द्रियो मे भीतर-बाहर ऐसी शान्ति आ जायेगी कि देखने वाले के हृदय मे भी समाघि उत्पन्न होगी । इस प्रकार भावप्रतिक्रमण की यह