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बारहवां-बोल-१६५.
__ में तल्लीन हो जाता है । ।
तात्पर्य यह है कि कायोत्सर्ग करने से आन्मा पाप के भार से हल्का हो जाता है । आत्मा -निष्पाप होकर प्रशस्त धर्मध्यान मे तल्लीन रहता है और मुक्ति उसके समीप आ जाती है । इस प्रकार निष्पाप बना हुआ आत्मा कभी दुखी नही होता, सदा सुखी बना रहता है 1 सुखी बनने का उपाय यही है कि आत्मा पर पाप का जो भार लदा हो उसे कायोत्सर्ग द्वारा उतार दिया जाये । मगर दुनिया की पद्धति निराली ही नजर आती है। लोग धनपुत्र वगैरह मे सुख समझा हैं अर्थात् जिनके ऊपर पाप का भार लदा है उन्ही को सुखी समझा जाता है और जो लोग पाप के भार से हल्के हो गये हैं . उन्हे दुखी माना जाता है। यह एक प्रकार का भ्रम है । सुखी वास्तव मे वही है जिसके सिर पर पाप का भार नही रहा, जो पाप.का,बोझा उतार कर हल्का बन गया है। .
आत्मा मे अनन्त शक्तिया छिपी हुई हैं। उन्हे प्रकट करने के लिए ही शास्त्रकार कायोत्सर्ग का, उपदेश देते है। भगवान् कहते हैं -कायोत्सर्ग करने से आत्मा पाप के बोझ से मुक्त होकर सुखलाभ करता है और प्रशस्त धर्मध्यान मे लीन होकर मुक्ति के समीप पहुचता है । काय के प्रति ममताभाव का त्याग करके कायोत्सर्ग करने वाले को किसी प्रकार का दुख नही रहता । वह सुखी होता है ।
हे आत्मन् | तुझमे और परमात्मा मे जो भेद है, वह कायोत्सर्ग द्वारा मिट जाता है । व्यतिरेक से इस कथन का अर्थ यह भी हो सकता है कि आत्मा और परमात्मा