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१५२-सम्यक्त्वपराक्रम (२) थाना (भाव) रुक जाता है और आत्मा 'निरुद्धाव' बन जाता है । निरुद्धास्रव होने से यात्मा पाच समिति और तीन गुप्ति रप पाठ प्रवचनों का पालन करने में दत्तचित्त बनता है और प्रवचनों के पालन मे दत्तचित्त होने से सयमयोग के साथ यात्मा की अभिन्नता उत्पन्न होती है । अर्थात् आत्मा सयम के योग से जो भिन्न जा पड़ा है, वह भिन्नता नही रह जाती। पानी जब तक समुद्र से जुदा रहता है, तब तक उसमे और समुद्र में जुदाई जान पड़ती है, परन्तु जब पानी समुद्र में मिल जाता है ता जुदाई मिट जाती है । समुद्र में मिलने से पहले पानी जुदा मालूम होता है क्योकि बीच में पात्र है । पानी जब तक पात्र में है, तब तक वह समुद्र में नहीं मिल सकता और उसी कारण पात्र का पानी समुद्र से भिन्न मालम होता है । बीच में पात्र न हो तो समुद्र के पानी और पात्र के पानी में काई अन्तर न रहे। इसी प्रकार यात्मा मोह से कारण सयमयोग से भिन्न हो रहा है । यों तो आत्मा स्वरूपतः सयमयोग से भिन्न नहीं है, किन्तु भिन्नता मा गई है और उस भिन्नता का कारण मोह है । यात्मा किस प्रकार सयमयोग मे भिन्न जा पटा है, इसके विपय में श्रीसूयगटागमूत्र में कहा है .
जेसि कुले समुप्पन जेहि वासं बसे नरे , मम्माई लुप्पई वाले, अन्नमन्नणं जीविणो ॥
ग गाथा का आशय यह है कि आत्मा जिसके साथ रहता है और जिग कुल में उत्पन्न होता है, अपने आपको वैसा ही मान लेता है । उदाहरणार्थ नीचे माने जात लोग भी अपनी जाति में रचे-पचे रहते है तब रपाट जान पढने लगता है कि आत्मा जिसके साथ रहता है अथवा जिस कुल