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. ग्यारहवाँ बोल-१५५
लोटा करते थे। सिंह कपटी, लोगो की गोद मे नही लोटते। वे उसकी गोद मे लोटते हैं, जिनकी आत्मा सयमयोग में वर्तती है और जिनकी इन्द्रियां सुप्रणिहित होती हैं। यह सयमयोगी की परीक्षा है । जो सयमयोग' मे प्रवृत्त होगा उसकी परीक्षा प्रकृति भी इस रूप में प्रकट कर देती है। ,
जिनकी इन्द्रिया सुप्रणि हित नही हैं अर्थात् विषयवासना की तरफ दौड़ती रहती हैं, फिर भी जो लोग अपने को सयमयोगी के रूप में प्रकट करते हैं, वे ठग और पाखडी है । गीता मे भी कहा है - .
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य, यः प्रास्ते मनसा स्मरन् । इन्द्रियार्थान विमूढात्मा, मिथ्याचारः स उच्यते ॥
जिसके हृदय में विकार भरे हैं और जिसकी इन्द्रिया विपयवासना की ओर दौडा करती है, वह ऊपर से अपने को, भले ही सयमी प्रकट करे मगर वास्तव में वह मिथ्याचारी-पाखडी है।
इस प्रकार सयमयोग मे प्रवृत्त न होते हुए भी जो अपने को सयमयोग' मे प्रवृत्ति करने वाला प्रकट करता है, उसकी निन्दा सभी ने की है । इसी प्रकार सयमयोग मे प्रवृत्त होने वाले महा त्माओ की प्रशसा भी सभी ने की है। वास्तव मे संयमयोग मे वर्तने वाले महात्मा धन्य हैं। ऐसे महात्माओ का सत्सग भी सौभाग्य से प्राप्त होता है। महापुरुपो का सत्सग होना भी एक वडा सौभाग्य है।
अब हमे विचार करना है कि हमें क्या करना चाहिए ? करना यही है कि जब आप देवसी, रायसी, पाक्षिक, चातुर्मासिक या सवत्सरी का प्रतिक्रमण करे तब