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बारहवां बोल-१५६
यावश्यक है।
काय का त्याग दो प्रकार से होता है-- प्रथम तो जीवन भर के लिए और दूसरे परिमित समय के लिए । जीवन भर के लिए किये जाने वाले कायोत्सर्ग के दो भेद है। एक यावज्जीवन कायोत्सर्ग उपसर्ग आने पर किया जाता है और दूसरा विना उपसर्गही यावज्जीवन कायोत्सर्ग किया जाता है। उपसर्ग उपस्थित होने पर यावज्जीवन के लिए जो कायोत्सर्ग किया जाता है, उसमे यह भावना रहती है कि उपसर्ग के कारण अगर मैं मर गया तो मेरा यावज्जीवन कायोत्सर्ग है, अगर मैं जीविन बच गया तो जब तक उपसर्ग रहे तब तक के लिए ही यह कायोत्सर्ग है । निरुपसर्ग यावज्जीवन कायोत्सर्ग मे ऐसा कोई आगार नही रहता । निरुपसर्ग यावज्जीवन कायोत्सर्ग मे पादोपगमन संथारा ऐसा होता है कि जैसे वृक्ष मे से काट डाली गई डाली निश्चेष्ट हो जाती और सूख जाती है, उसी प्रकार यह सथारा धारण करने वाले महात्मा अपने शरीर को 'शुष्क' कर डालते हैं । इस प्रकार का सथारा न कर सकने वाले के लिए इगितमरण सथारा बतलाया गया है । लेकिन जो लोग इगितमरण सथारा भी नही कर सकते, उनके लिए चौविहार या तिविहार का त्याग रूप यावज्जीवन कायोत्सर्ग बतलाया गया है। किन्तु इस प्रकार के सब निरुपसर्ग यावज्जीवन कायोत्सर्ग तभी किये जाते हैं जब ऐसा प्रतीत हो कि मरणकाल समीप आ गया है। मरणकाल सन्निकट न आया हो तो इस प्रकार का कायोत्सर्ग अर्थात् सथारा नही किया जा सकता। यो तो कायोत्सर्ग अर्थात् सथारा करना अच्छा ही है किन्तु जब तक मरणसमय सन्निकट नही है या