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सातवां बोल-७६
साथ बैठकर भोजन किया । कदाचित् क्षत्रियकुमार उसे मार डालता तो अधिक वैर बढता और वैर की वह परम्परा कौन जाने कहां तक चलती और कब समाप्त होती । किन्तु क्रोध पर विजय प्राप्त करने से दोनो क्षत्रिय भाई-भाई हो गये।
तुम प्रवचन को माता मानते हो । तो जैसे क्षत्रियकुमार ने माता की आज्ञा शिरोधार्य की थी, उसी प्रकार तुम भी प्रवचन-माता की बात मानोगे या नहीं ? प्रवचनमाता का आदेश यही है कि क्रोध को जीतो और निर्भय बनो । छुरा लेकर मारने के लिए कोई आये तो भी तुम भयभीत मत बनो । कामदेव श्रावक पर पिशाच ने तलवार का घाव करना चाहा था, फिर भी कामदेव निर्भय ही रहा। तुम धनवान होने का बहाना करके छूटने का प्रयत्न नही कर सकते, क्योकि कामदेव गरीब श्रावक नही था, वह अठारह करोड मोहरो का स्वामी था, उसके साठ हजार गौएँ थी। फिर भी वह निर्भय रहा । तुम भी इसी प्रकार निर्भय बनो । निर्भय होने पर तलवार, विष या अग्नि वगैरह कोई भी वस्तु तुम्हारा वाल बाका न कर सकेगी । वास्तव में दूसरी कोई भी वस्तु तुम्हारा बिगाड नही कर सकती, सिर्फ तुम्हारे भीतर पैठा हुआ भय ही तुम्हारी हानि करता है । अपने आन्तरिक भय को जीतोगे तो अपने को अत्यन्त शक्तिशाली पाओगे।
कहने का आशय यह है कि क्रोध को जीतो और क्षमा धारण करो । साधारण अवस्था मे तो सभी क्षमाशील रहते हैं मगर क्रोध भडकने पर क्षमा रखना ही वास्तव मे क्रोध को जीतना कहलाता है। कहावत है