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आठवां बोल-१०१ इस गाथा मे सावध योग की व्याख्या की गई है। इसका भावार्थ यह है कि निन्दनीय कार्य सावध कहलाता है अथवा क्रोध, मान, माया और लोभ को सावद्य योग कहते हैं, क्योकि समस्त निन्दनीय कर्म कपाय के अधीन होकर ही किये जाते है । निन्दनीय कर्मों का कारण कषाय है, अत कारण में कार्य का उपचार करके कषाय को भी सावध योग कहा गया है। इस सावध के साथ जो व्यापार (प्रवृत्ति) की जाती है वह सावध योग का प्रत्याख्यान कहलाता है।
इस गाथा मे आये हुए 'सावज्ज' शब्द का 'सावर्य' भी अर्थ होता है और ‘सावद्य' भी। पापयुक्त कार्य सावध कहलाता है और गहित या निन्दित कार्य सावर्य' कहा जाता है।
आर्य की व्याख्या करते हुए एक बार मैने कहा थापारात सकलहेयधर्मभ्य इति आर्य. ।
अथर्ता-समस्त हेय धर्मो -पापकर्मों का त्याग करने वाला आर्य है । जो कार्य आर्य पुरुषो द्वारा त्यागे गये हैं अथवा उनके द्वारा जो निन्दित हैं, वे सब कार्य सावध हैं। श्रेष्ठ पुरुष कभी निन्दित कार्य नही करते । जिन कार्यों से जगत् का कल्याण होता है वह श्रेष्ठ कार्य हैं और ससार का अहित करने वाले कार्य निन्दित कर्म है । सारा संसार जआ खेलने लगे तो क्या ससार का अहित नही होगा ? ऊपर से तो जूआ मे अल्प आरम्भ दिखाई देता है परन्तु वास्तव में जूआ खेलना दुनिया के लिए अत्यन्त अहितकर है। इसी कारण शास्त्र मे उसे महाप्रमाद कहा है । इसी प्रकार ससार के समस्त मनुष्य अगर चोरी करने लगे तो
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