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नवां बोल - १०१
कहा है कि चौवीस तीर्थंकरो की स्तुति करने से दर्शन की विशुद्धि होती है । इस कथन का आशय यह है कि चौबीस तीर्थकरो का स्तवन करने से स्तवन करने वाले का सम्यक्त्व इतना निर्मल हो जाता है कि देवता भी उसे सम्यक्त्व से विचलित नही कर सकते । अर्थात् उसका दर्शन अत्यन्त निर्मल और प्रगाढ हो जाता है । दर्शन को विशुद्धि करने के लिए चौवीस तीर्थंकरो का स्तवन निरन्तर करते रहना चाहिए | कदाचित् स्तवन का फल प्रत्यक्ष या तत्काल दृष्टिगोचर न हो तो भी उसी प्रकार स्तवन करते रहना चाहिए । दवा का फल प्रत्यक्ष दिखाई नही देता फिर भी वंद्य पर विश्वास करके रोगी उसका सेवन करता रहता है और आगे चल र दवा अपना गुण प्रकट करती है, इसी प्रकार भगवान के कथन पर विश्वास रखकर तीर्थकरो का स्तवन करते रहोगे तो दर्शन की प्राप्ति अवश्य होगी । मोह और मिथ्यात्व का अवश्य ही विनाश होगा | शास्त्र में कहा है:
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सद्धा परम दुल्लहा ।
अर्थात् - श्रद्धा बहुत दुर्लभ है ।
यह कथन उस श्रद्धा के विषय मे है, जो श्रद्धा
जीवित' होती है | जैसे मुर्दा मनुष्य किसी काम का नही समझा जाता, उसी प्रकार मरी हुई श्रद्धा भी किसी काम की नही होती। अगर किसी मनुष्य मे मुर्दापन आता दिखाई देता है तो उसे दवा देकर स्वस्थ किया जाता है, इसी प्रकार अगर आपकी श्रद्धा मे मुर्दापन आ रहा हो तो उसे भी चोवीस जिनो की स्तुति द्वारा जीवित बनाओ । ऐसा करने से श्रद्धा गुण की प्राप्ति होगी । अतएव चौवीस तीर्थ
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