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ग्यारहवां बोल-१४३ कहने का आशय यह है कि उदयभाव में प्राप्त इद्रियो को और मन को उदयभाव के कार्य से विलग करके आत्मा के गुणो मे स्थापित करना प्रतिक्रमण है । आप प्रत्येक वस्तु , के विषय मे प्रतिक्रमणपूर्वक विचार करे कि-'मै जिन-जिन पदार्थो का इन्द्रियो द्वारा उपयोग करता है, वह पदार्थ वास्तव मे मेरे लिए हानिकारक हैं या लाभकारक हैं ?' प्रत्येक पदार्थ का उपयोग करते समय इस प्रकार का विवेक करने की आवश्यकता है। पेट को · लेटर-बोक्स' वनाना उचित नही है अर्थात् जैसे लेटरवोक्स का मुंह हमेशा चिट्ठी डालने के लिए खुला रहता है, उसी प्रकार तुम्हारा पेट भी भोजन के लिए सदा खुला नही रहना चाहिए। ऐसा होने से कितनी हानि होती है, इस बात का विचार कीजिए और अपनी आत्मा को औदयिकभाव के कार्यो से निवृत्त करके आत्मिक गुणो मे ही स्थापित कीजिए । इसी मे आपका कल्याण है ।
जैनशास्त्र परमात्मा के साथ सम्बन्ध स्थापित करने की बात कहकर हो नही रह जाते । वे सम्बन्ध स्थापित करने के लिए क्रियात्मक कार्य करने का भी उपदेश देते हैं। प्रतिक्रमण के उपदेश का प्रयोजन ईश्वर के साथ सम्बन्ध जोडना ही है । प्रतिक्रमण करने से जीव को किस फल की प्राप्ति होती है, इस प्रश्न के उत्तर मे भगवान ने कहा हैप्रतिक्रमण करने से व्रत मे पडे हुए छिद्र ढक जाते हैं। अर्थात् अगीकार किये हुए व्रतो मे अतिचाररूपी जो छिद्र पड़ जाते है, वह प्रतिक्रमण करने से मिट जाते है ।
'प्रतिक्रमण' शब्द 'प्रति' और 'मण' इन दो शब्दों के सयोग से बना है, जिसका अर्थ होता है-परस्थान में प्राप्त आत्मा को स्वस्थान पर लाना । स्वीकार किये व्रतों