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११२ - सम्यक्त्वपराक्रम ( २ )
कम्मे " का अर्थ नही है । इस पाठ का अर्थ यह है कि राज्य अर्थात् सुव्यवस्था के विरुद्ध काम नही करना चाहिए । राजा के विरुद्ध काम नही करना चाहिए यह भ्रमपूर्ण अर्थ समझ बैठने के कारण ही आप मे कायरता आ गई है ।
भीष्म कहते हैं - " हे युधिष्ठिर ! जिस समय द्रौपदी का वस्त्र खीचा जा रहा था उस समय क्या हमारा यह कर्त्तव्य नही था कि हम इस कार्य के विरुद्ध आवाज उठाते ?' मगर हम सब टुकुर-टुकुर देखते रहे और द्रोपदी का वस्त्र खीचा जाता रहा ! यद्यपि हमे उस समय उस पाप कार्य का विरोध करना चाहिए था, लेकिन हम प्रकट रूप से कुछ भी न बोल सके। हमारी यह कैमी कायरता थी ? दुर्योधन से हमे यही शिक्षा मिली थी कि राजा के विरुद्ध कुछ भी नही बोलना चाहिए । इसी शिक्षा के कारण वहा उपस्थित लोगो मे ऐसी कायरता पैठ गई थी कि सब मौन साधे बैठे रहे । सब लोग अपने-अपने मन मे सोचते थे कि अनुचित कार्य हो रहा है, मगर दुर्योधन के सामने कौन बोले ? हमारे लिए यह कितनी लज्जास्पद बात थी ! एक कवि ने कहा है
नीरक्षीर विवेके हंस ? श्रालस्य त्वमेव तनुषे चेत् । विश्वस्मिन्नधुनाऽन्य: कुलवतं पालयिष्यति कः ? ॥ पक्षियों के झुण्ड में एक राजहस भी था । किसी पुरुष ने इस झुण्ड के मने दूध और पानी का एक प्याला रखा । दूसरे पक्षियो ने उस प्याले मे चोच मारी तो राजइस ने भी चोच मारी । लेकिन जब दूसरे पक्षी चुपचाप बैठ रहे तो राजहस भी चुप हो रहा । यह दृश्य देखकर