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१२८-सम्यक्त्वपराक्रम (२)
चित है । कतिपय लोगो का कहना है कि हमें किसी के प्रति राग-द्वेष नही रखना चाहिए और सभी की वदना करनी चाहिए । मगर यह कथन ठीक नही है। राग-द्वेष नही होगा तो वदना किये विना ही मुक्ति मिल जायेगी । अगर कोई वदना करता है तो उसे सोचना चाहिए कि वह किसको और किस उद्देश्य से वदना कर रहा है ? राजपुरुष
आदि को जो वदना की जाती है वह उसकी सत्ता के कारण की जाती है, लेकिन वदना करने योग्य गुणो से रहित पासत्था आदि को वदना करने का उद्देश्य क्या है ? यहा जिस वदना का प्रकरण वल रहा है, वह वन्दना सयमादि गुणों से हीन पुरुषो को करना उचित नहीं है । क्यो उचित नही है, यह बताने के लिए इस गाथा में कहा है कि पासत्था को वन्दना करने से कीत्ति भी नही मिलती । कहा जा सकता है कि कीति न मिले तो न सही, निर्जरा तो होगी? मगर आगे इसी गाथा मे कहा है-पासस्था आदि को वन्दना करने से निर्जरा भी नही होती । कोई कह सकता है-- निर्जरा न हो तो न सही, वन्दना करने मे हानि क्या है? इसके उत्तर में कहा है- पासत्था आदि को वन्दना करने से निरर्थक कायक्लेश होता है । कदाचित कहा जाये कि ऐसा कायक्लेश तो होता ही रहता है, इसके अतिरिक्त और कोई हानि तो नही होती ? इस प्रश्न के उत्तर मे, गाथा में बतलाया गया है कि पासत्था आदि को वन्दना करने से सिर्फ कायक्लेश ही नही होता वरन् अनाज्ञाकर्म का बध भी होता है अर्थात् भगवान् को आज्ञा के विरुद्ध कार्य करने का पाप लगता है ।
मान लीजिए, चम्पा के फूलो को माला अशुद्धि में